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|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
जिस्म की रंगत भले ही दूध जैसी है।
रूह भी तो पर्वतों की दूध जैसी है।

पर्वतों से मिल यक़ीं होने लगा मुझको,
हर नदी की नौजवानी दूध जैसी है।

छाछ, मक्खन, घी, दही, रबड़ी छुपे इसमें,
पर्वतों की ज़िंदगानी दूध जैसी है।

सर्दियाँ जब दूध बरसातीं पहाड़ों में,
यूँ लगे सारी ही धरती दूध जैसी है।

रोग हो गर तेज़ चलने का तो मत आना,
वक़्त लेती है पहाड़ी, दूध जैसी है।
</poem>
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