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{{KKRachna
|रचनाकार=नज़ीर अकबराबादी
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जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।<br>
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।<br>
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।<br>
ख़म शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।<br>
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।<br><br>

गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।<br>
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।<br>
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो।<br>
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।<br>
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।<br><br>