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|संग्रह=चाँद का पैवन्द / कल्पना सिंह-चिटनिस
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<poem>

आकाश कितना समृद्ध,
फिर भी उसके दामन पर
चाँद का पैवन्द।

जमीं पर उस किनारे से
चांदनी है उतर रही,
और शहर के सारे मकान,
खंडहरों सी चुप्पी समोए वीरान,

फिर भी पुरानी मस्जिद से अज़ां
अभी देखना उठेगी।
तब ये वीराने क्या चुप रहेंगे?

नहीं,
निकल पड़ेंगे खोज में
बेबस और बेचैन होकर,
अज़ां के हक़दार के।

</poem>
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