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च्‍ची और एक बूढ़ा पेड़ - कविता - {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=आर चेतन क्रांति . चेतनक्रांति|संग्रह=}}
एक पानी की पुडि़या मिली है/माथे पर बांधे फिरता हूं/बूंद-बूंद टपकती है/कभी आंख से/कभी रूह पर।
[ शुभ्रा के लिए ]
____________________________________________________________________________'''एक पानी की पुडि़या मिली है/माथे पर बांधे फिरता हूँ/बूंद-बूंद टपकती है/कभी आँख से/कभी रूह पर।''' '''(शुभ्रा के लिए)'''
बच्‍ची एक खूबसूरत चिडि़या का नाम था
 जिसने एक बूढ़ बूढ़े और खोखले पेड़ के दिल में
घोंसला बना रखा था
 
पेड़ बहुत पुराना था
 और उसने अपनी पुख्‍तगी पुख़्तगी को तार-तार होते देखा थाजर्राज़र्रा-जर्रा ज़र्रा उसे याद था जो उसके वजूद से फिसलकरवक्‍त वक़्त की नदी में चला गया था
बच्‍ची अभी-अभी दुनिया में आई थी
 
और उसे मालूम भी नहीं था
 कि जहां जहाँ उसने डेरा डाला है उस खोखले में कितने प्रेत रहते हैं उसे ज्ञान -पिपासा नहीं थी 
वह इस दुनिया को उसी रूप में देखना चाहती थी
 
जिस रूप में वह दिखती थी
 
वह यह भी नहीं चाहती थी कि उसे विश्‍वास हो
 
विश्‍वास और आस्‍था उसके लिए
 
पेड़ की पत्तियों जैसे थे जो होते हैं
 
अगर पेड़ होता है
इसलिए पेड़ भयभीत रहता था
 
हवा उसे हिलाती
  *
तो वह झुंझलाता
 
जंगल उसे पुकारता
 तो वह एक गमगीन हूं 'हूँ' करता 
जो कहती थी
कि मुझे मत पुकारो मैं नहीं बोल सकूंगा बच्‍ची डर जाएगी
ki मुझे मत पुकारो मैं नहीं बोल सकूंगा बच्‍ची डर जाएगीकि मेरी आवाज आवाज़ में डरावने मुर्दे चीखते हैंगालियां गालियाँ बकते हैं असंतुष्‍ट बूढ़े और अतृप्‍त बुढि़याएंबुढि़याएँ
गुस्‍सा झींकता है अपनी बेबसी को
 
और इच्‍छा रोती है अपने वैधव्‍य को
 
और बच्‍ची यह भी नहीं जानना चाहती थी
 
कि इस पेड़ का नाम क्‍या है
 यह कहां कहाँ से आया है और यहां यहाँ से कहां कहाँ जाएगा 
उसका उस पाप से कोई वास्‍ता नहीं था
 
जो उसे घेरे हुए था
*  फिर एक दिन यूं यूँ गुजरा 
कि जंगल में एक नियम आया
 
उसने कहा कि प्रेम की बात हम नहीं करते
 हम सिर्फ सिर्फ़ इतना जानते हैं 
कि पुकारा जाए तो आप हाजिर हों
 
जवाब दें जब सवाल सामने हो
 उठकर सलाम बजाएं बजाएँ जब सवारी गुजरे हरकत में दिखें जब तैयारियां तैयारियाँ चल रही हों युद्ध की
और प्रेम मर गया
पेड़ ने अपनी तमाम हिंसा और तमाम क्रोध को गूंथा
और तीर चले जहरीले
पेड़ ने अपनी तमाम हिंसा और तमाम क्रोध को गूँथा
*लेकिन चिडि़या जो मरी वह और तीर से नहींतीर की मौजूदगी से मरीचले ज़हरीले
 
 
लेकिन चिडि़या जो मरी वह तीर से नहीं
 
तीर की मौजूदगी से मरी
पेड़ जंगल से उठा
 
सब तरफ शांति थी
एक भी मुर्दा सांस नहीं ले रहा था
*
न पेड़ के भीतर न पेड़ के बाहर
एक भी मुर्दा साँस नहीं ले रहा था
 
 
 
न पेड़ के भीतर न पेड़ के बाहर
पल गुजरे जैसे शापित ग्रह गुजरते होंगे
आंतरिक्ष अंतरिक्ष में चुपचाप 
और फिर एक आर्त्‍तनाद सुना गया
*   
पूरे जंगल में जैसा कभी किसी ने
 
किसी जिंदा या मुर्दा काठ के भीतर से नहीं सुना था।
*
बच्‍ची लेकिन मरी नहीं थी
 
उसकी पारदर्शी त्‍वचा के भीतर
 
एक पूरी दुनिया आबाद थी
 
जीवन की जो बाहर से नहीं दिखती थी
पेड़ ने आँसू नहीं पोंछे थे
 
पेड़ ने आंसू नहीं पोंछे थे
जब वह शहर में आया शहर उसे पानी की
 
एक झिलमिल चादर में उतराता दिखाई दिया
*   लोग तलवारें भांजते भाँजते इधर-उधर बह रहे थे 
पानी में पाल थी मार वे रेत के किले बनाते
 
और एक-दूसरे पर टूट पड़ते और इस तरह
 
सभ्‍यता को जारी रखते
बच्‍ची के पंखों से धुली नई आंखों आँखों से 
पेड़ ने फिर शहर को देखा
 और कांपता काँपता हाथ बढ़ाकर एक बनिये से 
एक पुडि़या मांगी अंतिम निराशा की
ताकि लौटकर न आना पड़े
* 
ताकि वह चला जाए
 
नदी में बैठकर नाव की तरह
 
अज्ञात के समुद्र में
जहां जहाँ बच्‍ची और प्रेम चले गए थे  
*
पेड़ को नहीं पता था
 
कि बच्‍ची मरी नहीं थी
 
कि उसके भीतर अपने ही निष्‍पाप जिजीविषा की
 
एक पूरी दुनिया आबाद थी
*   
जिसे कोई नहीं मार सकता था
 
क्‍योंकि वह जीने के कारणों पर निर्भर नहीं थी।
*   
पर पेड़ एक पुराना स्‍वभाव था
 
उसने पीड़ा को नहीं रोका
 
गोंद की तरह भरने दिया उसे
 
अपनी पपडि़यों,खोखलों और रंध्रों के भीतर
 
ताकि उसका अन्‍दर और बाहर एक हो जाए
*   
कि जब वह चले उसके पैरों के दोनों निशान
 
एक जैसे हों
 कि लड़खड़ाहट का कोई तीसरा कदमक़दम 
पीछे आनेवालों को बेभरोसा ना करे
*   
कि पेड़ एक अरसे से सच्‍चे दुख की खोज में था
 
जो उसके कलुष और द्वैत को धो दे
और बच्‍ची के जाने पर वह उसके सामने था
*   दुख वह जिसमें न कोई फांक फाँक थी न झिर्री न जिससे हवा आती थी न आवाजआवाज़ 
वह एक सपाट मैदान था जहां बैठकर पेड़
 
बच्‍ची से वो सारी बातें करता
 
जो उसने नहीं की थीं
 
जब बच्‍ची होती थी
 उसे मालूम नहीं था क्‍योंकि वह मालूमियत की हदों का कैदी क़ैदी था कि बच्‍ची मरी नहीं है वह भी सिर्फ सिर्फ़ इसलिए कि वह मर ही नहीं सकती थी  
क्‍योंकि बच्‍ची के रेशों में जीने की हिंस्र प्रतिज्ञा नहीं छिपी थी
 
वह रूई की तरह थी जितनी धुनी जाती
 
उतनी ही निखरती जितनी मरती
 
उससे ज्‍यादा जी उठती
*   
पेड़ उसकी तस्‍वीर से बातें करता
 
जो तस्‍वीर नहीं थी
 
तस्‍वीर की तस्‍वीर की तस्‍वीर थी
 
जो मरने और जीने के पर्दों से छनकर
 
पानी की फुहार की तरह उसके बूढ़े चेहरे पर गिरती थी
वह चलता और चलते-चलते बैठ जाता
 
सोचने लगता और सोचते-सोचते
आंसुओं आँसुओं की झील पर जा निकलतामुंह मुँह धोता नहाता और साफ-सुथरा होकर 
वापस बातों की पगडंडी पर आ जाता
*   राह के ठूंठठूँठ, पत्‍थर और घायल परिंदे 
उसके हाल-चाल पूछते और हर बार नई हर बार
 निखरी उसकी आवाज आवाज़ से चकित रह जाते
वे देखते कि वह बदल रहा है
 
जैसे पृथ्‍वी बदलती रहती है अपनी आंच से
 
भीतर-भीतर वह दुख से बदल रहा था
कि सहसा भीतर की घूंधूँ-धूं धूँ में सबकुछ सब-कुछ डूब जाता वह पूछता -- मैं क्‍या कह रहा था और आप 
चलिए शुरू से शुरू करिए
 
क्‍योंकि आप तो कर सकते हैं
तब एक दिन उसे संदेश मिला झील में तैरता हुआ दो पत्‍ते पर
 
कि बच्‍ची कमजोरी नहीं ताकत बनना चाहती है
यह एक उदघाटन उद्घाटन था पेड़ को लगा 
कि बच्‍ची उतनी इकहरी नहीं जितनी दिखती थी
 
और उसे निर्भरता महसूस हुई जो उसके तने के नीचे
 
राख की तरह पड़ी रहती थी
 
और तलब
 
वह जला
और कई दिन झील में पांव डाले बैठा रहा
और कई दिन झील में पाँव डाले बैठा रहा
 यह शक उसे बाद में हुआ कि बच्‍ची जिंदा ज़िंदा है  
*
फिर उस दिन उसने बच्‍ची को देखा
आंसुओं आँसुओं की उस दुनिया जितनी बड़ी झील के उस तरफ वह एक सफेद सफ़ेद पत्‍थर पर बैठी थी आधी डूबी हुई खुशी ख़ुशी में आधी उबरी हुई दुख में 
वह डरी
 
और चली
 अपने द्वीप पर दो कदम क़दम अंदर से दो कदम क़दम बाहर 
और उड़ने से पहले
 
पेड़ की तरफ पीठ करके एक बार हिचकी में हिली
पेड़ को लगा जैसे झील हिली
 
जैसे जंगल हिला
 
जैसे पृथ्‍वी हिली
 
जैसे कोई पाप-जर्जर शरीर हिलता है
 अवसान के पहले की आखिरी खांसी खाँसी में 
ऐसे हिली दुनिया
*और अंत में 
एक घर होता है रेत का बच्‍चे जिसे
 
खेल-खेल में बनाकर घर चले जाते हैं
 
फिर वह ढह जाता है
 
पेड़ ऐसे ढ़हा जब चिडि़या उड़ी
 उसने शन्‍य शून्‍य को देखा 
जो दुनिया के चमचमाते कंगूरों के बीच
 
हमेशा फैला रहता है
 
पर जिसे हम छू नहीं पाते
 
पेड़ ने उसे छुआ
*   
फिर शक्ति को छूने के लिए हाथ बढ़ाया
 एक अस्थिर , निराकारऔर निराकार और बेचेहरा लपट 
जो झील की छाती से उठ रही थी
नातवानी का ये आलम था कि उठते न बने
 और यूं खूब यूँ ख़ूब था बारे जहांजहाँ, कि जाए क्‍यों।
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