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|रचनाकार=गन्धर्व कवि प. नन्दलाल
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<poem>
जमीदार का फर्ज बख्त पै, खेती नै बोवण का हो,
मात-पिता का धर्म सुता कै, लायक वर टोहवण का हो।। टेक ।।

मनु ऋषि का लेख देखल्यो, झूठ कहैं ना एक रती,
इच्छा पूरी करणी चाहिए, जब नारी होती ऋतुमति,
ऋतुमति की इच्छा को, जै पूरी ना कर सकै पति,
महापाप का भागी होता, मिलै अन्त म्य बुरी गति,
करै पति की टहल स्त्री तो, फेर के हक छोहवण का हो।।

सुता सामर्थ घरां बाप कै, जाती ना ब्याही देखाे,
नरक कुंड के गामी हों, पितु-मात बड़ा भाई देखो,
सुत सामर्थ मात पिता की, करै ना सेवकाई देखो,
ब्रह्महत्या सम पाप लगै, वो पापी अन्यायी देखो,
प्रातःकाल अौर सांयकाल म्य, महादोष सोवण का हो।।

खाण-पीणा सोणा छुटज्या, घर म्य बुरी पड़ाई हो,
आधी रात नै जाणा पड़ज्या, ठाडे की इसी अड़ाई हो,
बुआ-भाण धी बेटी नै, दे दायजा मान बड़ाई हो,
जड़ै झूठ तैं काम चलै, उड़ै साची कहै लड़ाई हो,
उसकी किमत होती जो, मोती लड़ के म्हं पोवण का हो।।

रवि-शशी दीपक ना घर म्य, पुत्र बिना उजाळा हो,
दुश्मन मीठी बात करै, पर भीतरले का काळा हो,
गुरु कृपा से खुल जाता, झटपट घट का ताळा हो,
उसका दुश्मन क्या कर सकता, जिसका राम रुखाळा हो,
नंदलाल कहै अनमोल्या जीवन, वृथा ना खोवण का हो।।
</poem>
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