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|संग्रह=सावण फागण / लक्ष्मीनारायण रंगा
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<poem>
आदमी कित्तै रंगां में रग्यो हुयो है
ईसा तो अजै सूळी पे टंग्यो हुयो है

चान्द मंगळ माथै बसणै री योजनावां
धरती माथै फेरूं मजहबी दंगो हुयो है

अहिसां री धरती पे ऐ ऐटमी फसलां
भारत रो गांधी फैरूं नागो हुयो है

पर्यावरण नै हाथां जैर पा रियां हां
हेमलॉक पीयर कद सुकरात चंगो हुयो है

सभ्यता-संस्कृति ने संवारण रो दावो
आदमी है कै थोड़ो और बेढंगो हुयो है

ऊजळी खोळां पैर काळा अजगर घूमै
जन-सेवा मांस रो धंधो हुयो है

ग्यान री सीढियां चढ़रियो है जितौ
आदमी बित्तौ ई चितबंगो हुयो है

धरती नै सुरग बणाणैं रा सुपनां
प्रकृति रौ आंचळ बदरंगो हुयो है
</poem>
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