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'''क्यों फिरै भरमति सुरति...... भ्रमति श्रुति , गुरुवां की टहल करै नै ।। टेक ।।'''
कर्म का काजल शर्म का सुरमा, नैनों बीच रमाले री,मन की मेंहदी लगन की लाली, हाथों बीच रमाले री,ज्ञान-विलक्षण तिक्ष्ण-चक्षु कर, घर पीया का पाले री,अटल महल मैं सेज बिछाले री, पी संग शैल करै नै।। दया का दामण कर्म की कुर्ति, हरि रंग मै रंगवाले,गुरू चरण का चीर औढके, गम का घोटा लगवाले,ओढ पहर सिंगर कै सजनी, झटपट तट पै जाले,सत्संग गंग मैं आले-न्हाले, मन का मैल हरै नै।। गरज का गहना पहर लाडली, ओढ पहर सिंगरले।सिंगरले,प्रेम पियाला पिला पिया को, अपणे बस मैं करले।करले,गुरू चरण की शरण चली, जा परलै पार उतरले।उतरले,
नंदलाल को उर मैं धरले, निर्भय कदम धरै नै।।
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