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|रचनाकार=ललित कुमार
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<poem>
'''तूं धर्मराज तुल न्याकारी राजा, क्यूँ अनरीति की ठाणै,'''
'''म्हारै समय का चक्कर चढ्या शीश पै, हम नौकर घरां बिराणै || टेक ||'''

पर-त्रिया पर-धन चाहवैणियां, नरक बीच मै जा सै,
तूं राजा होकै अनरीत करैं, उस धर्मराज कै न्या सै,
तमित्र नर्क, कुट कीड़यां की, उड़ै चूंट-चूंट कै खां सै,
28 नर्क गिणे छोटे-बड़े, दक्षिण दिशा मै राह सै,
न्यूं मेरी छाती मै घा सै, भाई हम बेवारस कै बाणै ||

महाराज राज मै दासी-बांदी, हो करणे नै सेवा,
जो पर-त्रिया नै मात समझते, ईश्वर तारै खेवा,
काम-क्रोध मद-लोभ तजे तै, मिलै आनंदी सुख मेवा,
उतर मै मिलै स्वर्ग द्वारा, परमपदी सुख देवा,
तूं होरया ज्यान का लेवा, क्यूँ सहम तेगी ताणै ||

तूं बदी चाहवै, कुबध कमावै, हो पन्मेशर कै खाता,
तनै दुःख होज्या, तूं कती खोज्या, ओड़ै तेल तलै सै ताता,
जा खोड़ सूख, या लागै भूख, यो दर्द देख्या ना जाता,
मै रटूं राम नै, कहूँ श्याम नै, वो ईश्वर भी ना ठाता,
तेरा बाप बराबर समझै नाता, न्यूं आँण-काण नै जांणै ||

धन-धरती और बीर, बख्त बिन रुलते फिरया करैं,
क्यूँ करैं भूप अनरीत जाणकै, उस हर तै डरया करैं,
धर्म-कर्म नै जाणनिये, के अधर्म करया करैं,
गऊँ-ब्राह्मण सतगुरु सेवा तै, बेड़े तिरया करैं,
यो ललित कुमार न्या करया करैं, कती दूध और पाणी छाणै ||
</poem>
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