भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
तपे हुए नभ के नीचे
काली सड़कें तारकोल की
पत्ते झुलस गए थे
हों अकाल के ज्यों अवतार
एक अकेला तांगा ताँगा था दूरी परकोचवान की काली सी चाबूक चाबुक के बल परवह वो बढ़ता था
घूम-घूम ज्यों बलखाती थी सर्प सरीखी
बेदर्दी से पड़ती थी दुबले घोड़े की गरम
पीठ पर।
भाग रहा वह तारकोल की जली
कभी एक ग्रामीण धरे कंधे कन्धे पर लाठी
सुख-दुख की मोटी सी गठरी
लिए पीठ पर
भारी जूते फटे हुए
जिन में से थी झांक झाँक रही गांव गाँवों की आत्माजि़ंदा ज़िन्दा रहने के कठिन जतन मेंपांव पाँव बढ़ाए आगे जाता।
घर की खपरैलों के नीचे
कड़ी धूप से।
बड़े घरों के श्वान पालतू
बाथरूम में पानी की हल्की ठंड़क ठण्डक मेंनयन मूंद मून्द कर लेट गए थे।
कोई बाहर नहीं निकलता
गरमी के मौसम में।
</poem>