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17:13, 23 नवम्बर 2018
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जिसने हर इक की ज़रूरत ये पत्तियों पे जो शबनम का भरम हार रक्खा हैरब ने भी उसकी सख़ावत का भरम न जाने किसने गले से उतार रक्खा है
उसका एह्सान कभी भूल नहीं सकता मैंउस एक उजले सवेरे के वास्ते कब सेजिसने हर पल मेरी इज़्ज़त का भरम अँधेरी रात ने दामन पसार रक्खा है
मुझसे नफ़रत भी दिखावे के लिए कर थोड़ीग़ज़ल ज़ुबां पे, हँसी लब पे, रंग आँखों मेंइसी नफरत तुम्हारे प्यार ने मुहब्बत का भरम मुझको सँवार रक्खा है
मेरी आदत है उसे देखे बिना चैन नहींमज़ा सफ़र में मिले और बची रहे सेहतटिफ़िन में खाने के साथ उसने भी ख़ूब इस आदत का भरम प्यार रक्खा है
नाम लिख लिख के इमारात कि दीवारों परकुछेक लोग मुझे जां से ज़्यादा प्यारे हैंतुमने क्या ख़ूब विरासत का भरम तुम्हारा नाम उन्हीं में शुमार रक्खा है
फूल के बीच में काँटों को बसा कर तुमनेअगर रुका तो कहीं ये थकान उठने न देकिस नफ़ासत से नज़ाकत का भरम ये सोच, चलना अभी बरक़रार रक्खा है
वो दिलासे जो छलावों की तरह है ज़रा-सा देख के अनमोलतुम बताओ मुझेउन दिलासों ने हुकूमत का भरम ये मेरे नाम से क्या इश्तिहार रक्खा है
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