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|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
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<poem>

मैं किस को क्या सलाह दूँ
कि समस्याएँ सुलझती कैसे हैं
मैं ख़ुद को ही नहीं समझा पाया
कि आदमी को आदमी कहलाने के लिए
चढ़ना पड़ता है पहाड़ अकसर

ऊँचाई से कुछ न कहने
पर भी लोग सुन लेते हैं
क्योंकि दिख जाती है आवाज़।
नीचे रकर इन्तज़ार करना पड़ता है
कि भट्ठियों की दीवारें फट जाएँ
विस्फोट की लपटें दिखती हैं तब
आदमी की आवाज़ के साथ

मैं ज़मीं पर खड़ा आदमी
आदमी को पहचानने की मुहिम में
सबको शामिल करने निकला हूँ
खुली ट्रेन चलती चली
धीरे से या छलाँग लगाकर तरीके़ हैं कई
चढ़ने के
मैं तो फ़िलहाल कविताएँ लिखता हूँ।

</poem>
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