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{{KKRachna
|रचनाकार=हरि नारायण सिंह 'हरि'
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
खिड़की पर गोरैया बैठी मुझको जगा रही है।
सुबह-सुबह ही आकर यह तो आलस भगा रही है।
पेड़-पेड़ पर फुदक रही है, मेरे आंगन जो है,
मेरे मन की मीत बनी है, कुछ अरसे से वह है।
वह भी जान गयी है मुझको नेहा बढ़ा रही है।
खिड़की पर गोरैया बैठी मुझको जगा रही है।
नहीं किसी से द्वेष इसे है, सबकी बनी चहेती,
चुग-चुग कर दाना है खाती नेह सभी को देती।
प्रेम तिरोहित हुआ जगत से उसको मँगा रही है।
खिड़की पर गोरैया बैठी मुझको जगा रही है।
हम भी चिड़ियाँ बन सकते तो कितना अच्छा होता,
सारी दुनिया अपनी होती, गगन हमारा खोंता।
कुछ तो सीखें मीत! जीत के सपने सजा रही है।
खिड़की पर गोरैया बैठी हमको जगा रही है।
</poem>
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|संग्रह=
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खिड़की पर गोरैया बैठी मुझको जगा रही है।
सुबह-सुबह ही आकर यह तो आलस भगा रही है।
पेड़-पेड़ पर फुदक रही है, मेरे आंगन जो है,
मेरे मन की मीत बनी है, कुछ अरसे से वह है।
वह भी जान गयी है मुझको नेहा बढ़ा रही है।
खिड़की पर गोरैया बैठी मुझको जगा रही है।
नहीं किसी से द्वेष इसे है, सबकी बनी चहेती,
चुग-चुग कर दाना है खाती नेह सभी को देती।
प्रेम तिरोहित हुआ जगत से उसको मँगा रही है।
खिड़की पर गोरैया बैठी मुझको जगा रही है।
हम भी चिड़ियाँ बन सकते तो कितना अच्छा होता,
सारी दुनिया अपनी होती, गगन हमारा खोंता।
कुछ तो सीखें मीत! जीत के सपने सजा रही है।
खिड़की पर गोरैया बैठी हमको जगा रही है।
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