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{{KKRachna
|रचनाकार=जंगवीर सिंह 'राकेश'
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
लड़कियाँ क्यों रो पड़ती हैं;सहसा!
जब मैं यह सोचता हूँ; रोता हूँ !!
वह बिखर जाती हैं अचानक ही
वह सिमट जाती हैं अचानक ही
खूब बातें बनाती हैं अक्सर,,
खूब हँसती भी हैं हँसाती भी;
फिर अचानक ही वह रो पड़ती हैं,
लड़कियाँ भी अजीब होती हैं;;
चहचहातीं हैं चिड़ियों के जैसे;
खुलती हैं तो किताबों की तरहा,
बनती हैं तो कहानी-सी कोई;
टूटती हैं तो ख़्वाबों की तरहा;
फिर भी जाने वो कैसे?
ख़ुश रहती हैं !!
लड़कियाँ भी अजीब होती हैं;;
अपने माज़ी को छोड़ती ही नहीं
यादों के घर को फोड़ती ही नहीं
ख़त्म हो जाती हैं वजूद प ही;
लड़कियाँ खुल के बोलती ही नहीं;
और,
रो लेती हैं,
कंधो पे दोस्त के,
तो कभी किताबों के;
मैं समझता हूँ,
लड़कियाँ ही,
अस्ल में;
समझनें की चीज़ होती हैं;
लड़कियाँ भी अजीब होती हैं;
इक समंदर के जितना ग़म, यानी;
एक छोटे से दिल में रखती हैं;
और,
जबीं पर चमक,
दिल में नूर;
वह हर इक चीज़ जोड़े रखती हैं;
पॉजिटिव, कूल जैसे लफ़्ज़ों में;
सारे ग़म ही छुपाए रखती हैं;
लड़कियाँ भी अजीब होती हैं;
</poem>
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लड़कियाँ क्यों रो पड़ती हैं;सहसा!
जब मैं यह सोचता हूँ; रोता हूँ !!
वह बिखर जाती हैं अचानक ही
वह सिमट जाती हैं अचानक ही
खूब बातें बनाती हैं अक्सर,,
खूब हँसती भी हैं हँसाती भी;
फिर अचानक ही वह रो पड़ती हैं,
लड़कियाँ भी अजीब होती हैं;;
चहचहातीं हैं चिड़ियों के जैसे;
खुलती हैं तो किताबों की तरहा,
बनती हैं तो कहानी-सी कोई;
टूटती हैं तो ख़्वाबों की तरहा;
फिर भी जाने वो कैसे?
ख़ुश रहती हैं !!
लड़कियाँ भी अजीब होती हैं;;
अपने माज़ी को छोड़ती ही नहीं
यादों के घर को फोड़ती ही नहीं
ख़त्म हो जाती हैं वजूद प ही;
लड़कियाँ खुल के बोलती ही नहीं;
और,
रो लेती हैं,
कंधो पे दोस्त के,
तो कभी किताबों के;
मैं समझता हूँ,
लड़कियाँ ही,
अस्ल में;
समझनें की चीज़ होती हैं;
लड़कियाँ भी अजीब होती हैं;
इक समंदर के जितना ग़म, यानी;
एक छोटे से दिल में रखती हैं;
और,
जबीं पर चमक,
दिल में नूर;
वह हर इक चीज़ जोड़े रखती हैं;
पॉजिटिव, कूल जैसे लफ़्ज़ों में;
सारे ग़म ही छुपाए रखती हैं;
लड़कियाँ भी अजीब होती हैं;
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