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बताओ मुझे / बाल गंगाधर 'बागी'

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|संग्रह=आकाश नीला है / बाल गंगाधर 'बागी'
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<poem>
अंधेरा आज भी घरों में जिनके क़ायम हो
उम्मीद की रोशनी भी जहाँ घायल हो
सदा उम्मीद जहाँ खाई में गिरती हो
जिनके आंख से हर वक्त बहता काजल हो।

तुम्हारे वजूद को अगर कोई नंगा कर दे
तो उस हाल में करोगे क्या, बताओ मुझे?

फटे चिथड़ों में अगर मोनालिसा बनना पड़े
तारीफ में गालियां औ’ बेइज्जती सहना पड़े
मर्यादा अगर समाज में नंगी घुमाई जाये
बताओ फूलन देवी क्यों न न उन्हें बनना पड़े

जबरन तुम्हारी दुल्हन, पहली रात हो ठाकुर के घर
तब तुम्हारी दास्तां क्या होगी, जरा सुनाओ मुझे?

जब हलवाही तुम्हारे ही नाम लिख दी गई हो
रेहन पे तुम्हारे घर की सार संपति रखी गई हो
बच्चे पढ़ाई की जगह, तुम्हारे जानवर चराते हों
हड्डियों के बल, सवर्णों की चौखट पे घिस गये हों

तुम्हें पेट भर जब अनाज न मिले खाने को
किस हाल में ज़िन्दा रहोगे, समझाओ मुझे?

गांव के बाहर कूड़े की तरह फेंक दिया जाये
पानी के लिये कुंए की जगत से, धकेल दिया जाये
पीड़ा में सने पसीने से, कड़ी ठंडक में नहाना पड़े
चिलचिलाती धूप में, खेत में कुदाल चलाना पड़े

ज़िन्दगी बोझ-सा ढोना पड़े परछाई जैसे
जीवन का राग क्या होगा, गा सुनाओ मुझे

आंसू कम न थे, पर बरसात घर पे वर्षा है
झोपड़ी सावन की, पुरवाई का जैसे झोंका है
कटी पतंग-सी, जिनकी ज़िन्दगी बे-डोर हुई
डूबते बाढ़ में क्यों, किसी ने नहीं रोका है?

सूनी पतीली में कुछ बनाऊं, क्या खिलाऊं उन्हें?
आंसू की भाप में पके चावल, तो खिलाओ मुझे?

जब बेटा दूल्हा बने और बाप बाराती हो
शादी की डोली अर्थी-सी सूनी जाती हो
माँ अपने पीड़ा को गीतों में गुनगुनाती हो
शादी में पकवान न, बस साग भात बनाती हो

सजीव मानव का निर्जीव चित्रण, दिखायें किसे
यह किस समाज का दस्तावेज है, बताओ मुझे?

तुम्हारी माँ बहनंे, घसियारन बनी मर जायें गर
फिर शादी में, शहनाई बजे और न हँसे कंगन
दुल्हन को पैदल ससुराल, शादी में जाना पड़े
उसी दिन ठाकुर का, मरा जानवर उठाना पड़े

सड़ा माँस खाना और फिर गंदगी उठाना पड़े
क्या मज़ा उस गंध का ले पाओगे, बताओ मुझे?

तुम्हें जाति के नाम पर लहूलुहान कर दिया जाये
नीच बोल समाज मंे, चारपाई से उतार दिया जाये
जूठी पत्तलें उठाने और गाली देकर बुलाया जाये
दिन रात बेगार-सा, हर मौसम में खटाया जाये

तुम्हारी खुशी का चिराग़, फिर कभी न जले
अपने आप को देखोगे क्या, जरा बताओ मुझे?

कचरे के ढेर या फुटपाथ पर सोना पड़े
प्रदूषण में तड़पते जीवन ऐसे खोना पड़े
बीमारी से ग्रस्त दवा बिन तड़पना पड़े
पेट की आग को जब जूइन से बुझाना पड़े

इनकी यातनां का झंझावत, दिखाऊं किसे?
किस महाकाव्य के ये पात्र हैं, बताओ मुझे?
(दिसम्बर 2009, जेएनयू)
</poem>