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दक्षिण दिशा / बाल गंगाधर 'बागी'

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|संग्रह=आकाश नीला है / बाल गंगाधर 'बागी'
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<poem>
ज़माना कहाँ से कहाँ तक बदलता रहा
लेकिन हमारा घर दक्षिण में बनता रहा
मालूम नहीं वो आंधी में कैसे जीते थे
जब हवा का रूख उनकी तरफ मुड़ता रहा

दिशाओं पर कब्जा जमा कर बैठे रहे
हवा रोशनी मगर कभी न पकड़ सके
बरसात का तूफान जब भी आता था
हमारी बस्ती के पानी से वे न बच सके

हमारे घर में जब सड़ा मांस पकता था
तुम्हारे गांव में गंध उसका जाता था
गोबर में गेहूँ से माँ रोटी जब बनाती थी
गुजरते हुए तुम्हारे नाक में घुसता था

बताओ कैसे उस गंध को सह पाते हो
हमारे परछाई से भले ही भाग जाते हो
हवाओं से कभी बचके न निकल पाते हो
जब सांसों के बीच अछूतों से उलझ जाते हो

तुम्हारे घर में जानवर रहा करते हैं
पर दलित गांव के बाहर बसा करते हैं?
तुम्हारी नजर में इंसान की अहमियत क्या
जो आज भी अछूत हुआ करते हैं

हर जगह गंदगी वो साफ करते हैं
कहीं झाड़ू टोकरी उठाया करते हैं
तुम जातिवाद की गंदगी में जीते हो
समाज इसी से दलदल में डाल देते हो

अब दक्षिणी हवा उत्तर की तरफ बहती है
पूरब पश्चिम चारों दिशा से कहती है
मैं तूफान बनकर चारों दिशा में जाऊंगी
सामंती सोच की दीवार हर गिराऊंगी
</poem>
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