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{{KKRachna
|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=रेत पर उंगली चली है / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
विषैली झाड़ियां राहों से कटवाना ज़रूरी था
अंधेरी कन्दरा तक रौशनी जाना ज़रूरी था।
छुपाने के लिए कुछ कीमती नुस्ख़े ज़माने से
किसी हिस्से में दिल के एक तहखाना ज़रूरी था।
पता चल ही न पाया कब हुआ क़ुर्बान सादा दिल
लगा था हुस्न का दरबार नज़राना ज़रूरी था।
उदासी है घुटन है, सर्द आहें, दर्द, बैचैनी
ग़मों के साथ इस बारात का आना ज़रूरी था।
महब्बत खत्म हो जाती मुरव्वत तोड़ देती दम
तअस्सुब की उठी दीवार को ढाना ज़रूरी था।
निकाली कुछ नई राहें सफीने को बचाने में
बदलते ही हवा का रुख़, बदल जाना ज़रूरी था।
ज़ियादा ज़ुल्म सहने की इजाज़त मां नहीं देती
हमारी कौम ज़िंदा है नज़र आना ज़रूरी था।
बचाने आबरू दहलीज़ की चेतावनी देकर
जियाले को निकल मैदान में आना ज़रूरी था।
अमानत वो पराई है, पता जब चल गया मुझको
क़दम आगे बढ़े 'विश्वास' लौटाना ज़रूरी था।
</poem>
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|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=रेत पर उंगली चली है / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
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<poem>
विषैली झाड़ियां राहों से कटवाना ज़रूरी था
अंधेरी कन्दरा तक रौशनी जाना ज़रूरी था।
छुपाने के लिए कुछ कीमती नुस्ख़े ज़माने से
किसी हिस्से में दिल के एक तहखाना ज़रूरी था।
पता चल ही न पाया कब हुआ क़ुर्बान सादा दिल
लगा था हुस्न का दरबार नज़राना ज़रूरी था।
उदासी है घुटन है, सर्द आहें, दर्द, बैचैनी
ग़मों के साथ इस बारात का आना ज़रूरी था।
महब्बत खत्म हो जाती मुरव्वत तोड़ देती दम
तअस्सुब की उठी दीवार को ढाना ज़रूरी था।
निकाली कुछ नई राहें सफीने को बचाने में
बदलते ही हवा का रुख़, बदल जाना ज़रूरी था।
ज़ियादा ज़ुल्म सहने की इजाज़त मां नहीं देती
हमारी कौम ज़िंदा है नज़र आना ज़रूरी था।
बचाने आबरू दहलीज़ की चेतावनी देकर
जियाले को निकल मैदान में आना ज़रूरी था।
अमानत वो पराई है, पता जब चल गया मुझको
क़दम आगे बढ़े 'विश्वास' लौटाना ज़रूरी था।
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