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|रचनाकार=प्रणव मिश्र 'तेजस'
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<poem>
ख़ामुशी की धुन पे तन्हा रक़्स करती रात है
ज़ख्म खाये दिल के सीने में उतरती रात है

सहरा सहरा प्यास के मंज़र से होकर रू ब रू
अब किसी आशिक़ के होंठो से उभरती रात है

फूल सूरज रौशनी से दूर शबनम की तरफ़
दिन ढले तारों के दरपन में सँवरती रात है

टीस गहरी और यादों का उतरता काफ़िला
प्यार के दोज़ख़ से सहमी और कतरती रात है

कुछ सियह तस्वीर, माज़ी के ख़यालों का धुआँ
सब में अपने दर्द का कुछ अक्स भरती रात है

यूँ कहूँ तो एक लड़का उसको प्यारा है बहुत
लोग तेजस ये भी कहते उसपे मरती रात है
</poem>
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