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05:39, 18 सितम्बर 2019 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=कुबेरनाथ राय
|अनुवादक=
|संग्रह=कंथा-मणि / कुबेरनाथ राय
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<poem>
मन की धूप
कब की भटक गई अनजान गलियों में
मन का हाहाकार स्तब्ध
भीतर-भीतर कंठ दाब दिया
बाहर यह अशोक फूला है
बाहर दूर्वा का मुकुट पहन राह मुसकराती है
पर मैं खड़ा रहा
निहारते तुम्हारी बाट
जैसे कवि था खड़ा
उज्जयिनी के जन-मार्ग पर
किसी मालविका की प्रतीक्षा में
जैसे विधि था प्रतीक्षारत
नील नाभि पर
किसी के नयन पलक खुलने की चाह में
मैं खड़ा रहा वैसे ही
भीतर अपने को तराशता रहा
रचता रहा युगनद्ध मूर्ति
और बाहर शून्यपथ, शून्यनेत्र
तुमको पुकारते रहे।
''[ कलकत्ता : नेशनल लाइब्रेरी (अलीपुर), 1959 ]''
</poem>