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भीड़तंत्र / राजेन्द्र देथा

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<poem>
लोकतांत्रिकता के इस
खुली छूट ने एक बड़े धड़े को
बना दिया है भीड़ का हिस्सा
सरे आम किसी को भी
शिकार बना दिया जाता है इनदिनों
गांधी, गोडसे,के नाम पर
होती है दिनोदिन दरिंदगी,
राजा भरतहरि पश्चाताप कर
अवसादग्रस्त है इन दिनों
"मेवात इतना क्यूँ गिर गया"
गौ माता स्वयं सोचती है
जब किसी मानुष की हत्या होती है
अपने नाम के पीछे,पर्दे के पीछे सी
राष्ट्रवाद के प्रमाण पत्र बांटे जाते है
इन दिनों भीड़ का हिस्सा होने पर
इस भीड़ के पगलाए हुए
उन माणसो को पागलपन
का इस कदर आलम सताता है कि-
ऐसा न करने पर एक दिन
जबरन होगा धर्मांतरण
लाशें उठेंगी धर्म पर
अल्लाह-राम दोनों जन्नत में
ओलंबे देंगे.. फलां..
"भारत एक लोकतांत्रिक देश है"
सत्ताऐं बदलने के तरीके है प्रिय
कुछ न होगा, धर्म गर्त में
कभी न जाएगा, स्वयं गर्त में गिरोगे
यह देश जब से लोकतान्त्रिक बना तब से
सब वतन में है, अब कहाँ आंच आयेगी
</poem>
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