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{{KKRachna
|रचनाकार=महेन्द्र भटनागर
|संग्रह= विहान / महेन्द्र भटनागर
}}
<poem>
सांध्य का वातावरण धूमिल गहन तम में
छिप गया दिन भी शिशिर-सा शुष्क-मौसम में !
तप्त धरती पर उमड़कर छा रहे बादल
बह रहीं मोहक बयारें सिंधु से शीतल !
ताप में अब डूबती घड़ियाँ बिताओ मत
त्रास्त हो आकाश में आँखें लगाओ मत,
दूर दक्खिन से नयी बरसात आयी है
यह तभी बिजली गगन में चमचमायी है !
1945
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|रचनाकार=महेन्द्र भटनागर
|संग्रह= विहान / महेन्द्र भटनागर
}}
<poem>
सांध्य का वातावरण धूमिल गहन तम में
छिप गया दिन भी शिशिर-सा शुष्क-मौसम में !
तप्त धरती पर उमड़कर छा रहे बादल
बह रहीं मोहक बयारें सिंधु से शीतल !
ताप में अब डूबती घड़ियाँ बिताओ मत
त्रास्त हो आकाश में आँखें लगाओ मत,
दूर दक्खिन से नयी बरसात आयी है
यह तभी बिजली गगन में चमचमायी है !
1945
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