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रश्मिरथी / पंचम सर्ग / भाग 1

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हो चुकी पूर्ण योजना नियती की सारी,
कल ही होगा आरम्भ समर आती अति भारी.
रण में शर पर चढ़ महामृत्यु छूटेगी.
संहार मचेगा, तिमिर घोर छाएगाछायेगा,
सारा समाज दृगवंचित हो जाएगाजायेगा.
जन-जन स्वजनों के लिए कुटिल यम होगा,
परिजन, परिजन के हिट हित कृतान्त-सम होगा.
कल से भाई, भाई के प्राण हारेंगेहरेंगे,
नर ही नर के शोणित में स्नान करेंगे.
दो में जिसका उर फटे, फाटूँगी फटूँगी मैं ही,
जिसकी भी गर्दन कटे, कटूँगी मैं ही,
सितकेशी, संभ्रममयी चली सकुचा कर.
 
 
उड़ती वितर्क-धागे पर, चंग-सरीखी,
 
सुधियों की सहती चोट प्राण पर तीखी.
 
आशा-अभिलाषा-भारी, डरी, भरमायी,
 
कुंती ज्यों-त्यों जाह्नवी-तीर पर आयी.
 
 
दिनमणि पश्चिम की ओर क्षितिज के ऊपर,
 
थे घट उंड़ेलते खड़े कनक के भू पर.
 
लालिमा बहा अग-अग को नहलाते थे,
 
खुद भी लज्जा से लाल हुए जाते थे.
 
 
राधेय सांध्य-पूजन में ध्यान लगाये,
 
था खड़ा विमल जल में, युग बाहु उठाये.
 
तन में रवि का अप्रतिम तेज जगता था,
 
दीपक ललाट अपरार्क-सदृश लगता था.
 
 
मानो, युग-स्वर्णिम-शिखर-मूल में आकर,
 
हो बैठ गया सचमुच ही, सिमट विभाकर.
 
अथवा मस्तक पर अरुण देवता को ले,
 
हो खड़ा तीर पर गरुड़ पंख निज खोले.
 
 
या दो अर्चियाँ विशाल पुनीत अनल की,
 
हों सजा रही आरती विभा-मण्डल की,
 
अथवा अगाध कंचन में कहीं नहा कर,
 
मैनाक-शैल हो खड़ा बाहु फैला कर.
 
 
सुत की शोभा को देख मोद में फूली,
 
कुंती क्षण-भर को व्यथा-वेदना भूली.
 
भर कर ममता-पय से निष्पलक नयन को,
 
वह खड़ी सींचती रही पुत्र के तन को.
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