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रोटी / हेमंत जोशी

No change in size, 20:21, 6 मई 2020
<poem>
'''मार्क्स को याद करते हुए'''
याद रखें कि मेरा पेट भरा है
कहीं कोई बंजर नहीं, हर तरफ तरफ़ हरा-भरा है
पेट को हमेशा-हमेशा रखने के लिए भरा-पूरा
जंगल से शहरों और शहरों से महानगरों तक फिरा मैं मारा-मारा।मारा ।
जानवरों के शिकार से
आदमखोरी आदमख़ोरी से भी पेट भरा है।है ।
जब दिखे बंजर मैदान
बदला उनको खलिहानों में
रोटी सूरज की छटाओं सी
अलग-अलग रंगों की
अलग-अलग स्वाद सी।सी ।
जबसे बनाई रोटी
हो गई रोज़ी-रोटी
हो गई मजबूरी इतनी
हाय पापी पेट क्या न करायेकराए
चोरी-चकारी, हत्याएँ, हमले, प्रपंच
जेब काटना, बाल काटना
कारें, बसें, रेल की सवारी
ढेरों नशे, ढेरों बीमारी
ढेरों दवाएँ औऱ और महामारी
विकास ही विकास चहुँ ओर
नए-नए हथियार, टैंक, युद्धपोत, विमान
पता ही नहीं चला
कब सत्ता के दलालों ने
लोकतंत्र लोकतन्त्र के नाम पर रोटी की बहस को
बदल दिया विकास की बहस में
ज्ञान-विज्ञान-अनुसंधान अनुसन्धान और प्रबंधन प्रबन्धन की बहस में।में ।
आज जब कोई भूखा
करते थे देवता
पुष्प वर्षा करते हैं हम
लोगों पर , जो जाते हैं सावन में गंगाजल लेनेलोगों पर , जो करते हैं सेवा तुम्हें महामारी से बचाने के लिए।लिए ।
तुम्हें, मूर्ख ! तुम्हें बचाने के लिए
और तुम्हें रोटी की पड़ी है
जब जीवन ही नहीं होगा
हम सुरक्षित रहेंगे
और हमारे खज़ाने भरे रहेंगे
हम रोटी के बिना ज़िंदा ज़िन्दा रहते हैं
वह और बात है कि हम जीते जी मरे हुए हैं
तू जिसे कहता है रोज़ी-रोटी
मिले तो सही
न मिले तो खोटी है
रोटी नहीं तेरी किस्मतक़िस्मत
जा , अब हमें पुष्प वर्षा करने दे।
- 5 05 मई 2020
</poem>
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