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ऑफिस से घर / जलज कुमार अनुपम

कुछ बदला बदला सा मौसम है
सब है बस,
हम नहीं है
दूसरा कोई वह न समझे
जो हम है
इसी को ढकने में
अपनी साँसत के साथ
एक वहम साथ लिए
ऑफिस के लिए निकलता हूँ
रास्ते में अनायास
कई चेहरे टकराते है
जो अनगिनत सवाल जन्म देते है
यथार्थ का धरातल
कतराने कहाँ देता है भला !
अपने अंदर का खालीपन
कितने वाद और इज्मों को
उभरने ही नहीं देता है
इसके साथ ही
सैकड़ों रंगीन और खुशनुमा सपने
जिम्मेदारियों और कुछ चेहरों से टकरा कर
चूर चूर हो जाते है
सच पूछो तो
घर से ऑफिस
और ऑफिस से घर
हर लम्हा अपने साथ लेकर
खड़ा रहता है,
कुछ पाने की उम्मीद
कुछ खोने का डर
इनके साथ होता है
क्षितिज के उस पार वाले सपने
और उन सभी के मध्य दबा
सिमटा, सकुचाया अपने लिए
पल पल भीड़ में उपलों
की तरह सुलगती क्रांति,
हर दिन मन मुठभेड़ करता है
दुर्घटनाओं का सिलसिला जारी रहता है
और साथ में जारी रहता है
घर से ऑफिस और
ऑफिस से घर पहुँचने का सफ़र।
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