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<poem>
जखनि तवल हियरा हिम-पाथर,
आँखिन ढुलकल लोर,
आइल गीत उतरि के।
भूभुरि तपन देह-मन दाहल
उठल पीर गहिरोर,
आइल गीत उतरि के।

रहिया की धूरि नियन उड़लि पिरितिया
देखते ढहलि जस बालू के भितिया
बारल सँझवत काँपे कपसल
लउके नाहीं भोर
आइल गीत उतरि के।

अधनींनि सपना में सुन्नर सुरतिया
झाँकि जात खिड़की से नित अधिरतिया
भरि अंग सटा मितवा बिलगल
करि के हिया कठोर
आइल गीत उतरि के।

अचके सियात मुँह लागि जात पहरा
पाँव बान्हि हीत नित पठवे लमहरा
रहिया परिखत पउवाँ थथमल
दिखे ओर ना छोर
आइल गीत उतरि के।

पढ़ि ना पावत केहू लिखल लकिरिया
गुणा भाग जोड़ ना ह मिलल उमिरिया
जोरत गाँठत बान्हत फसकल
जब नेहिया क डोर
आइल गीत उतरि के।
</poem>
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