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{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
|अनुवादक=|संग्रह=सतरंगिनी / हरिवंशराय बच्चन
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{{KKCatKavita}}<poem>
देवि, गया है जोड़ा यह जो
 
मेरा और तुम्‍हारा नाता,
 
नहीं तुम्‍हारा मेरा केवल,
 
जग-जीवन से मेल कराता।
 
दुनिया अपनी, जीवन अपना,
 
सत्‍य, नहीं केवल मन-सपना;
 
मन-सपने-सा इसे बनाने
 
का, आओ, हम तुम प्रण ठानें।
 
जैसी हमने पाई दुनिया,
 
आओ, उससे बेहतर छोड़ें,
 
शुचि-सुंदरतर इसे बनाने
 
से मुँह अपना कभी न मोड़ें।
 
क्‍यों कि नहीं बस इससे नाता
 
जब तक जीवन-काल हमारा,
 
खेल, कूद, पढ़, बढ़ इसमें ही
 
रहने को है लाल हमारा।
</poem>
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