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{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
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|संग्रह=प्रारंभिक रचनाएँ / हरिवंशराय बच्चन
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<poem>
मैं एक जगत को भूला,
 
मैं भूला एक ज़माना,
 
कितने घटना-चक्रों में
 
भूला मैं आना-जाना,
 
पर सुख-दुख की वह सीमा
 मैं भूल न पाया, सा‍कीसाकी
जीवन के बाहर जाकर
 
जीवन मैं तेरा आना।
 
तेरे पथ में हैं काँटें
 
था पहले ही से जाना,
 
आसान मुझे था, साक़ी,
 
फूलों की दुनिया पाना,
 
मृदु परस जगत का मुझको
 
आनंद न उतना देता,
 
जितना तेरे काँटों से
 
पग-पग परपद बिंधवाना।
 
सुख तो थोड़े से पाते,
 
दुख सबके ऊपर आता,
 
सुख से वंचित बहुतेरे,
 
बच कौन दुखों से पाता;
 हर कलिका की किस्‍मत किस्मत में जग-जाहिर, व्‍यर्थ व्यर्थ बताना, 
खिलना न लिखा हो लेकिन
 
है लिखा हुआ मुरझाना!
</poem>
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