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{{KKRachna
|रचनाकार=रमेश तन्हा
|अनुवादक=
|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
}}
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<poem>
यूँ तो औरों से उसे प्यार भी हो सकता है
आदमी अपना परस्तार भी हो सकता है।
दुश्मनी में मिरा ग़म-ख़्वार भी हो सकता है
वो मिरे खूं का तलबगार भी हो सकता है।
ये भी मुमकिन है तजस्सुस मिरा मंज़िल पा ले
मेरा जाना वहां बेकार भी हो सकता है।
आदमी मरता नहीं जिस्म के मर जाने से
ये अक़ीदा तो सरे-दार भी हो सकता है।
साबिका चलती हवा से है तो ये भी रहे याद
सफ़र आसान भी दुश्वार भी हो सकता है।
हामिले-सिदको-सफ़ा हो जो हवा-ए-तख़ईल
शजरे-फ़िक्र समर-बार भी हो सकता है।
पानी उथला हो तो रस्ते भी निकल आते हैं
पानी जम जाये तो दीवार भी हो सकता है।
दामन उम्मीद का छोड़ा नहीं करते जांबाज़
मुझदहे-ज़िन्दगी ईसार भी सकता है।
बे लिबासी कि शराफ़त का अतैया तो नहीं
ये तमाशा सरे-बाज़ार भी हो सकता है।
तुम ने जो ख़्वाब में देखा है महल परियों का
किसी शह-ज़ोर का दरबार भी हो सकता है।
एक ही चेहरा लिए फिरना ज़रूरी तो नहीं
आदमी रोज़ का अखबार भी हो सकता है।
नाव पानी में उतारूँ तो उतारूँ कैसे
जो है इस पार वो उस पार भी हो सकता है।
उसका होना ही अगर तय है तो तय है ये भी
है निराकार तो साकार भी हो सकता है।
एक तो शक्ल ही तेरी है कुछ ऐसी तन्हा
फिर तेरा आइना बीमार भी हो सकता है।
</poem>
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|रचनाकार=रमेश तन्हा
|अनुवादक=
|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
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<poem>
यूँ तो औरों से उसे प्यार भी हो सकता है
आदमी अपना परस्तार भी हो सकता है।
दुश्मनी में मिरा ग़म-ख़्वार भी हो सकता है
वो मिरे खूं का तलबगार भी हो सकता है।
ये भी मुमकिन है तजस्सुस मिरा मंज़िल पा ले
मेरा जाना वहां बेकार भी हो सकता है।
आदमी मरता नहीं जिस्म के मर जाने से
ये अक़ीदा तो सरे-दार भी हो सकता है।
साबिका चलती हवा से है तो ये भी रहे याद
सफ़र आसान भी दुश्वार भी हो सकता है।
हामिले-सिदको-सफ़ा हो जो हवा-ए-तख़ईल
शजरे-फ़िक्र समर-बार भी हो सकता है।
पानी उथला हो तो रस्ते भी निकल आते हैं
पानी जम जाये तो दीवार भी हो सकता है।
दामन उम्मीद का छोड़ा नहीं करते जांबाज़
मुझदहे-ज़िन्दगी ईसार भी सकता है।
बे लिबासी कि शराफ़त का अतैया तो नहीं
ये तमाशा सरे-बाज़ार भी हो सकता है।
तुम ने जो ख़्वाब में देखा है महल परियों का
किसी शह-ज़ोर का दरबार भी हो सकता है।
एक ही चेहरा लिए फिरना ज़रूरी तो नहीं
आदमी रोज़ का अखबार भी हो सकता है।
नाव पानी में उतारूँ तो उतारूँ कैसे
जो है इस पार वो उस पार भी हो सकता है।
उसका होना ही अगर तय है तो तय है ये भी
है निराकार तो साकार भी हो सकता है।
एक तो शक्ल ही तेरी है कुछ ऐसी तन्हा
फिर तेरा आइना बीमार भी हो सकता है।
</poem>