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{{KKRachna
|रचनाकार=रमेश तन्हा
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|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
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<poem>
ना-रसी देख कर ज़माने की
हम ने ठानी है मात खाने की।

बात करते हो किस ज़माने की
अब कहां दोस्ती, वफ़ा नेकी।

आबगीना हूँ, मेरी फ़ितरत है
ठेस लगते ही टूट जाने की।

रेज़ा रेज़ा बिख़र गया था मैं
गुफ्तगू मुझ से जब हवा ने की।

सारे उन्वान हो गये उनके
खो गई हर कड़ी फ़साने की।

एक लम्हा फ़ना का चाट गया
सारी तस्वीर ताने-बाने की।

हम-कलमी पे होश खो बैठी
एक गुड़िया निगार-खाने की।

मैं भी आंगन बुहार लूं अपना
है खबर गर्म उन के आने की।

है बहाना तो फिर बहाना ही
वजह कोई भी हो बहाने की।

मेरे अपने हैं कुछ उसूल मियां
बात खोने की है न पाने की।

वृक्ष बन जाना या फ़ना होना
यही किस्मत है एक दाने की।

वरना मैं आदमी तो काम का था
मेरी मिट्टी खराब अना ने की।

मैं वो पत्थर हूँ राह का जिस पर
वबत हैं ठोकरें ज़माने की।

वही पैदा निहां था जब 'तन्हा'
रौशनी किस लिए ख़ुदा ने की।

</poem>
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