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इसके पश्चात् साहित्यिक बुलंदियों को छूने के बाद उनकी कविताई से प्रभावित होकर लगभग दो दर्जन से ज्यादा शिष्यों ने इनको अपना गुरु धारण किया। पंडित रघुनाथ हमेशा साधू संतो से ज्यादा लगाव रखते थे, इसलिए साधू संतो की संगत मे उनकी कविताई को खूब पसंद किया जाता था।
प. रघुनाथ ने लगभग 42 से ज्यादा सांगीतो की रचना की जिसमे उन्होंने रस एवं अलंकारो का बहुत ही सहज प्रयोग किया। इन्होने अपने सान्गीतो में छंद के रुप में 2000 से उपर दोहे, 500 से ज्यादा गजल, असंख्य सवैये, चमोले, बहरे तवील, शेर, काफिये, दौड़, आदि को समाहित किया।
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मुश्किल नहीं बात का पाणा, मनुष्य को चाहिये नैम निभाणा,
फिजा खोती रही, बात होती रही, माता रोती रही, और बताने लगी ।।टेक।।
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उनके लोकनाट्यो की गूंज हरियाणा, राजस्थान एवं उतर प्रदेश के विभिन्न शहरों तक सुनाई देती थी। उनके स्वांगों में लोकजीवन व जमीन से जुड़े जनमानस का जिक्र होता था, जिस कारण हर कोई उनके सांगों का दिवाना था।
पंडित रघुनाथ उस समय सुर्यकवि पंडित लख्मीचंद जी से बहुत ज्यादा प्रभावित थे। इसलिए पंडित लख्मीचंद जी की जो देशी तर्ज थी, उन पर भी रघुनाथ जी ने अपनी कविताई करनी शुरू कर दी।
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बिन कर्म करे जग में कोई, पदवी ना पाणे का,
(सांग : रामू भगत)
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उतरप्रदेश की सांग या रागनी विधा को अगर पंडित रघुनाथ के साहित्य को पृथक किया जाए तो परिणाम एक बड़ा शून्य ही रहेगा। हर आदमी का अपना अलग किरदार होता है तथा अलग हालात व अलग सोच होती है लेकिन इन सब पर न जाकर, अगर हम रचनाकार, गायक, संगीतकार, अभिनेता आदि के रूप में प. रघुनाथ की बात करें तो वह इस क्षेत्र में उतरप्रदेश के अंतर्गत अपने समय की बेजोड़ हस्ती थे, हालाँकि उसी समय और भी कई प्रसिद्ध सांगी हुए, लेकिन प. रघुनाथ तो बस प. रघुनाथ ही थे।
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घुटी पड़ी हूँ, सखी रात की,
रागनी रघुनाथ की, ना लाखों में रलै।।
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मैं उन्हें एक ऐसी शख्सियत कहूंगा जो अगर उन्हें कोई गंधर्व कवि, आशुकवि, चंद्रकवि, सूर्यकवि भी न पुकारे तो भी मेरे हिसाब से उन्हें धराकवि कहा जाना चाहिए, क्योंकि वे थे ही ऐसे। इसीलिए तो उन्हें उस समय उस क्षेत्र के कवियों व प्रेसों द्वारा उन्हें ‘टन बी टन’ की उपाधि से नवाजा गया, जिसका मतलब इनके बुद्धि की कोई सीमा नहीं है अर्थात उन्हें जो भी उपाधि दी जाए, वो उनके लिए कम ही है।
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कृष्ण ने अद्भुत रास दिखाया, रंग रघुनाथ कथा में पाया,
(सांग: वन पर्व)
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दूसरी तरफ अगर देखा जाए तो उन्होंने पौराणिक कथाओं को भी नवीन संदर्भों में रंगित कर समाज मे जागृति लाने का प्रयास किया। किस्सों तथा रागणियों के माध्यम से वे गरीब, अस्पृश्य,पीडि़त आदि को उनके अधिकार दिलाने हेतु चेत्नाम्रत पिलाने मे जोशी दिखाई देते हैं। लोक साहित्य को पारंपरिक पौराणिक दायरे से बाहर निकालकर प. रघुनाथ ने युगीन समस्याओं को लोक के सामने सांगीत के रूप मे कलात्मक तरीके से प्रस्तुत किया है। इन्होंने अपनी रचनाओं में तत्कालीन समस्याओं का सहज रूप से निरूपण, समाज को खण्डित करने वाली कुरीतियों का खण्डन, शिक्षा, तीज त्योहारों, रीति रिवाजों व सामजिक मूल्यों, नैतिक मूल्यों में आई गिरावट, आर्थिक विषमता, रिश्वतखोरी का भंडाफोड करते हुये समाज में जागरूकता लाने का एक प्रयास किया।
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अपणा माणस अपणा हो सै, पास रहो चाहे न्यारा,
इज्जत नहीं बंटया करती, चाहे धन बंटज्याओ सारा।।
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दूसरी तरफ इन्होंने असंतोष, अलगाव, उपद्रव, आंदोलन, असमानता, असामंजस्य, अराजकता, आदर्श विहीनता, अन्याय, अत्याचार, अपमान, असफलता, अवसाद, अस्थिरता, अनिश्चितता, संघर्ष, हिंसा, पीड़ा, घुटन, ऊभ, दमन, गरीबी, भूख, चोरी, डकैती, बलात्कार, लूटमारी, बेकारी आदि की समस्याओं का कच्चा चिठ्ठा तो खोला ही गया है इसके साथ साथ नैतिकता, देश प्रेम, अपनी माटी के प्रति प्रेम, त्योहारों के प्रति आस्था, ईशवर के प्रति आस्था, संस्कृति के प्रति आग्रह, गिरते मुल्यों का विरोध आदि भी व्यापक स्तर पर मिलता है। इनके काव्य की अधिकांश रचनाओं में साधारण की मेहनत, समानता और प्रतिष्ठा का हिमायती स्वर मुखर हुआ है, जो कवि की 'शिरोमणि' व 'टन बी टन' की उपाधि को ज़िंदा करता प्रतीत होता है।
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गुप्त लिफाफा बन्द, लगाकर त्योर देखना,
(सांग : द्रौपदी चीरहरण)
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इस तरह सांग विधा को सर्वोच्च शिखर तक पहुचाने वाले और उतरप्रदेश व हरियाणवी सांग को तपाकर कुन्दन बनाने वाले इस उतरप्रदेश व हरियाणवी जीवन शैली के चितेरे कवि का पार्थिव शरीर सन 1977 मे होली के दिन पंचतत्व मे लींन होकर ये वैतरणी नदी को पार करते हुये, इस निधि के बन्धनों से मुक्त हो गए और भौतिक संसार से विदा हो गए। अतः एक महान कवि के रूप मे अपने लोक साहित्य के स्वर्णिम अक्षरों को, हमारी आत्माओं मे चित्रित कर गये। सांग के उस स्वर्णकाल में इनकी आहुति मील का पत्थर साबित हुई जो अपनी अथाह एवं अनमोल विरासत छोडक़र चले गए।