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<poem>
दर्द खुद को ही सुनाने से है राहत कितनी
अश्क चुपचाप बहाने से है राहत कितनी

जिसके आने से कभी मिलती थी राहत दिल को
आज उस शख़्स के जाने से है राहत कितनी

न कोई आह ,न आंसू न ख़लिश सीने में
जाने वालों को भुलाने से है राहत कितनी

दिल की दीवार में अब दर्द के धब्बे भी नहीं
इक तेरा नाम मिटाने से है राहत कितनी

लाख हंसने में तकल्लुफ़ थे ,पशेमानी थी
खुल के अश्कों को बहाने से है राहत कितनी

उनका हर हर्फ़ था शाहिद मेरी बर्बादी का
तेरे हर ख़त को जलाने से है राहत कितनी

जब तलक सर था तो तलवारों की ज़द में थे 'सहाब'
सिर्फ़ इक सर को कटाने से है राहत कितनी
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