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बंधन / अजय सहाब

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रिश्तों की रस्सियों से ,उलझे हुए हैं तन मन
हैं मोह के ये पिंजरे ,इंसान के ये बंधन

अपनी ही इक चिता में हर कोई जल रहा है
खुशियों के इक भरम में ,खुद को ही छल रहा है
बँटते हुए दिलों ने ,बांटे हैं सारे आँगन
रिश्तों की रस्सियों से...

सीनों में सबके दिल हैं पर धड़कनें कहाँ हैं ?
वो प्यार और वफ़ा की सब दौलतें कहाँ हैं ?
सूखी हैं सब हवाएं ,आये कहाँ से सावन
रिश्तों की रस्सियों से...

हर कोई खो गया है अपनी ही खुशबुओं में
होता है दर्द सब को ,अपने ही आंसुओं में
खुद को ही बस दिखायें ,हैं ख़ुदग़रज़ ये दरपन
रिश्तों की रस्सियों से...
</poem>
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