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{{KKRachna
|रचनाकार=छादोर वाङ्ग्मो
|अनुवादक=अनामिका
|संग्रह=
}}
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<poem>
देखती थी उसको अक्सर
बैठी हुई खिड़की से सटकर
टकटकी उसकी बंधी शून्य पर
लच्छे धुंघराले धुएं के
स्मृतियों की लट पर
स्मृतियां जिनसे वह चाहती थी पीछा छुड़ाना
या शायद उनका तकिया लगाना
दो थे हम, दोनों एकदम अकेले
अदृश्य दीवार उठा गए थे बीच में अपने
छल्ले सिगरेट के
धुएं में हम थे खोए
अपनी अलग-अलग दुनिया में
चली गई कब की वह, हारी हुई
बोझे से अपने दुख को दबाए, कहा नहीं उसने
पर गंध लग गई मुझको किसी तरह उसकी
खामोश होंठों से, बेमन ही छूटते
उन धुएं के छल्लों में
एकदम अकेली हूं मैं अब तो
जितनी, रहती थी जब मां के साथ
लेकिन वह अंतिम थक्का धुएं का
भभका था उसकी चिता से ही
गंध जानती हूं मैं उसकी
उस निचाट अकेलेपन की
फैलता है अब तक फेफड़ों में मेरे
वह धुआं सिगरेट का ।
</poem>
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|अनुवादक=अनामिका
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देखती थी उसको अक्सर
बैठी हुई खिड़की से सटकर
टकटकी उसकी बंधी शून्य पर
लच्छे धुंघराले धुएं के
स्मृतियों की लट पर
स्मृतियां जिनसे वह चाहती थी पीछा छुड़ाना
या शायद उनका तकिया लगाना
दो थे हम, दोनों एकदम अकेले
अदृश्य दीवार उठा गए थे बीच में अपने
छल्ले सिगरेट के
धुएं में हम थे खोए
अपनी अलग-अलग दुनिया में
चली गई कब की वह, हारी हुई
बोझे से अपने दुख को दबाए, कहा नहीं उसने
पर गंध लग गई मुझको किसी तरह उसकी
खामोश होंठों से, बेमन ही छूटते
उन धुएं के छल्लों में
एकदम अकेली हूं मैं अब तो
जितनी, रहती थी जब मां के साथ
लेकिन वह अंतिम थक्का धुएं का
भभका था उसकी चिता से ही
गंध जानती हूं मैं उसकी
उस निचाट अकेलेपन की
फैलता है अब तक फेफड़ों में मेरे
वह धुआं सिगरेट का ।
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