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साँझ के घन कुन्तलों केमोह में
बाँधो न इतना
मैं दहकती मोर का
सूरज उगाने जा रहा हूँ
 
स्वप्न-जालों का घना कोहरा
स्वयं होगा तिरोहित
मैं निषा निशा का घर
सितारों से सजाने आ रहा हूँ
मिल रहा है दूर से
आकाशगंगा आकाश गंगा का निमन्त्रण
एक नन्ही तारिका ने
स्वस्तिका वाचन किया है।
कलकिसी स्वर्णिम षिखर शिखर परज्योति का दिनमान होगाहै सुनिष्चितसुनिश्चितफिर किसीसतकर्म का यश-गान होगा 
टूटना गिरना-बिखरना
सृष्टि की षाष्वत शाश्वत नियति है
देखना है पर कहाँ
कितनी सुमति कितनी कुमति है
 देखता हूँ मैंकिसी संघर्शरतसंघर्षरत
गतिमय चरण ने
एक नव-युग-क्रांति का
शब्द के ही तो उड़े हैं
अन्तरिक्षों में कबूतर
रेशमी आष्वस्तियों अश्वस्तियों में ही
रहे अब तक उलझकर
 हो रहे हैं तन्त्र केनवकल्प से संकल्प गुंजित
तुम, हलाहल के लिये तो
मत करो यह सिन्धु मंथित
 जो मिला हैप्यार से ही बाँह मेंहमने समेटाषिवम् शिवम के हित ही सदा सेशक्ति-आराधन किया है।
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