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|रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
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<poem>
मेरा वश चले,
तो इस तरह चूम लूँ
करतल तुम्हारे
कि नियति बदल दूँ
न बनूँ दुर्बलता
सदा तुम्हें बल दूँ
ठहरूँ वहाँ
साधनारत तुम जहाँ;
मेरी तापसी
जहाँ तुम नहीं
वहाँ से चुपचाप चल दूँ।
'''तपन, जल, संघर्ष
पी जाऊँ घूँट -घूँटकर
भाल, पलकें, हथेलियाँ'''
जीभर जो चूम लूँ,
सुधापान व्यर्थ है
इनके आगे,
भाल में प्रेम का उद्वेग
लालसाएँ उद्दाम
है प्रदीप्त,
नयनों में उद्दीप्त हैं
सारे मधुरिम स्वप्न तरल
उल्लास का मन्त्रपूत जल
और हथेलियों का पावन
आत्मसुरभि से भरा स्पर्श
एक आश्वस्ति है
जीवन की
एक मजबूत पकड़ है
परम् मिलन की
सागर में समाती तरंग
पोर -पोर से छलकती
मन प्राण को आवेशित करती
सुदृढ परिरम्भ की उमंग।
-0-

</poem>