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ज़िन्दगी / राम सेंगर

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<poem>
ज़िन्दगी प्रकाशमयी रे !
साथी रे ,
ज़िन्दगी विकासमयी रे !

ज़िन्दगी, रुका हुआ प्रपात नहीं है
ज़िन्दगी, बुझा हुआ प्रभात नहीं है
ज़िन्दगी, विज्ञान की प्रतीक रेख है
ज़िन्दगी, प्रणय-भरा सुपाठ्य लेख है

ज़िन्दगी,जहाज़ के विहंग-सी नहीं
ज़िन्दगी, फटे हुए मृदंग-सी नहीं
ज़िन्दगी, प्रगीत की सुरम्य तान है
ज़िन्दगी, सलक्ष्य उड़ रहा सचान है

ज़िन्दगी, न ऊब के तुषार का धुआँ
ज़िन्दगी, न ध्वान्त से भरा हुआ कुआँ
ज़िन्दगी, प्रशान्त, पर, सप्राण आग है
ज़िन्दगी, खिले प्रसून का पराग है

ज़िन्दगी, कहे , मग़र अम्लान ताल से
ज़िन्दगी, बहे, मग़र सुधीर चाल से
ज़िन्दगी, हिमाद्रि की विशालता लिए
ज़िन्दगी, कुरीति के सभी गरल पिए

ज़िन्दगी, उलूक का विद्रूप स्वर नहीं
ज़िन्दगी, महज़ मरुस्थली सफ़र नहीं
ज़िन्दगी, घृणा नहीं पवित्र प्यार है
ज़िन्दगी, मयूर की मधुर पुकार है

ज़िन्दगी, न रूढ़ि, चेतना नवीन की
ज़िन्दगी, क़िताब है निरे यक़ीन की
ज़िन्दगी, वही, सुगन्ध जो न खो सके
ज़िन्दगी, वही, हँसे कभी न रो सके

ज़िन्दगी, न धार पर लगा विराम है
ज़िन्दगी, न हार का द्वितीय नाम है
ज़िन्दगी, ग़ुबार चीरती सबल किरन
ज़िन्दगी, अरण्य बीच दौड़ता हिरन

ज़िन्दगी, प्रकाशमयी रे !
साथी रे,
ज़िन्दगी, विकासमयी रे !
</poem>
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