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<poem>
सदा ही बरखा के दिन थे
और सदा, सदा शरद् ।
और, भारी आकाश धरती पर झुका पड़ता था
जैसे अन्तहीन बिछोह का दर्द ।

पुल था लाल, स्लेटी
गुज़रती नदी गाती जाती थी
और कहीं दूर, वह हो गई थी एकाकार
विशाल समुद्र के साथ ।

और जब हुआ खड़ा पुल पर
बच्चा छोटा,
रेलिंग तक पहुँची
सिर्फ़ ठुड्डी उसकी,

वह बच्चा रहा खड़ा पुल पर
और रहा घूरता पानी को ।
बचपन था — नदी और आकाश
जिससे गुज़रे थे बादल ।

'''मूल फ़िनिश भाषा से अनुवाद : सईद शेख'''
</poem>
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