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Kavita Kosh से
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गहन शोक के बाद आ बसती है एक यथारीति अनुभूति —
अनुष्ठानपूर्वक स्थिर हो रहती हैं तंत्रिकाएँ, मक़बरे की तरह —तरह—
सख़्त दिल पूछता है ’क्या ’वह’ भी, झेलता था यही’,
’कल की ही बात है ये या फिर सदियों पहले की’