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पटकथा / पृष्ठ 3 / धूमिल

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|सारणी=पटकथा / धूमिल
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<poem>मैं सोचता रहा<br>और घूमता रहा-<br>टूटे हुये पुलों के नीचे<br>वीरान सड़कों पर आँखों के<br>अंधे रेगिस्तानों में<br>फटे हुये पालों की<br>अधूरी जल-यात्राओं में<br>टूटी हुई चीज़ों के ढेर में<br>मैं खोयी हुई आजादी का अर्थ<br>ढूँढता रहा।<br>अपनी पसलियों के नीचे /अस्पतालों के<br>बिस्तरों में/ नुमाइशों में<br>बाजारों बाज़ारों में /गाँवों में<br>जंगलों में /पहाडों पर<br>देश के इस छोर से उस छोर तक<br>उसी लोक-चेतना को<br>बार-बार टेरता रहा<br>जो मुझे दोबारा जी सके<br>जो मुझे शान्ति दे और<br>मेरे भीतर-बाहर का ज़हर<br>खुद पी सके।<br>–और तभी सुलग उठा पश्चिमी सीमान्त<br>…ध्वस्त…ध्वस्त…ध्वान्त…ध्वान्त…<br>मैं दोबार चौंककर खड़ा हो गया<br>जो चेहरा आत्महीनता की स्वीकृति में<br>कन्धों पर लुढ़क रहा था,<br>किसी झनझनाते चाकू की तरह<br>खुलकर,कड़ा हो गया…<br>अचानक अपने-आपमें जिन्दा होने की<br>यह घटना<br>इस देश की परम्परा की -<br>एक बेमिशाल कड़ी थी<br>लेकिन इसे साहस मत कहो<br>दरअस्ल,यह पुट्ठों तक चोट खायी हुई<br>गाय की घृणा थी<br>(जिंदा रहने की पुरजो़र पुरर ज़ोर कोशिश)<br>जो उस आदमखोर की हवस से<br>बड़ी थी।<br>मगर उसके तुरन्त बाद<br>मुझे झेलनी पड़ी थी-सबसे बड़ी ट्रैजेडी<br>अपने इतिहास की<br>जब दुनिया के स्याह और सफेद चेहरों ने<br>विस्मय से देखा कि ताशकन्द में<br>समझौते की सफेद चादर के नीचे<br>एक शान्तियात्री की लाश थी<br>और अब यह किसी पौराणिक कथा के<br>उपसंहार की तरह है कि इसे देश में<br>रोशनी उन पहाड़ों से आई थी<br>जहाँ मेरे पडो़सी ने<br>मात खायी थी।<br>मगर मैं फिर वहीं चला गया<br>अपने जुनून के अँधेरे में<br>फूहड़ इरादों के हाथों<br>छला गया।<br>वहाँ बंजर मैदान<br>कंकालों की नुमाइश कर रहे थे<br>गोदाम अनाजों से भरे थे और लोग<br>भूखों मर रहे थे<br>मैंने महसूस किया कि मैं वक्त के<br>एक शर्मनाक दौर से गुजर रहा हूँ<br>अब ऐसा वक्त आ गया है जब कोई<br>किसी का झुलसा हुआ चेहरा नहीं देखता है<br>अब न तो कोई किसी का खाली पेट<br>देखता है, न थरथराती हुई टाँगें<br>और न ढला हुआ ‘सूर्यहीन कन्धा’ देखता है<br>हर आदमी,सिर्फ, अपना धन्धा देखता है<br>सबने भाईचारा भुला दिया है<br>आत्मा की सरलता को भुलाकर<br>मतलब के अँधेरे में (एक राष्ट्रीय मुहावरे की बगल में)<br>सुला दिया है।<br>सहानुभूति और प्यार<br>अब ऐसा छलावा है जिसके ज़रिये<br>एक आदमी दूसरे को,अकेले –<br>अँधेरे में ले जाता है और<br>उसकी पीठ में छुरा भोंक देता है<br>ठीक उस मोची की तरह जो चौक से<br>गुजरते हुये देहाती को<br>प्यार से बुलाता है और मरम्मत के नाम पर<br>रबर के तल्ले में<br>लोहे के तीन दर्जन फुल्लियाँ<br>ठोंक देता है और उसके नहीं -नहीं के बावजूद<br>डपटकर पैसा वसूलता है<br>गरज़ यह है कि अपराध<br>अपने यहाँ एक ऐसा सदाबहार फूल है<br>जो आत्मीयता की खाद पर<br>लाल-भड़क फूलता है<br>मैंने देखा कि इस जनतांत्रिक जंगल में<br>हर तरफ हत्याओं के नीचे से निकलते है<br>हरे-हरे हाथ,और पेड़ों पर<br>पत्तों की जुबान बनकर लटक जाते हैं<br>वे ऐसी भाषा बोलते हैं जिसे सुनकर<br>नागरिकता की गोधूलि में<br>घर लौटते मुशाफिर अपना रास्ता भटक जाते हैं।<br>उन्होंने किसी चीज को<br>सही जगह नहीं रहने दिया<br>न संज्ञा<br>न विशेषण<br>न सर्वनाम<br>एक समूचा और सही वाक्य<br>टूटकर<br>‘बि ख र’ गया है<br>उनका व्याकरण इस देश की<br>शिराओं में छिपे हुये कारकों का<br>हत्यारा है<br>उनकी सख्त पकड़ के नीचे<br>भूख से मरा हुआ आदमी<br>इस मौसम का<br>सबसे दिलचस्प विज्ञापन है और गाय<br>सबसे सटीक नारा है<br>वे खेतों मेंभूख में भूख और शहरों में<br>अफवाहों के पुलिंदे फेंकते हैं</poem>
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