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|रचनाकार=विंदा करंदीकर
|अनुवादक=स्मिता दात्ये
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<poem>
सुबह से रात तक
वही, वही ! वैसा ही !

बन्दरछाप दन्तमंजन;
वही चाय, वही रंजन;
वे ही गाने, वे ही तराने;
वे ही मूर्ख, वे ही सयाने;
सुबह से रात तक
वही, वही ! वैसा ही !

भोजनघर भी बदलकर देखे;
(जीभ बदलना सम्भव नहीं था !)
'चाची' हो या 'ताजमहल'
सबका हाल एक सा था ।
नरम मसाला, गरम मसाला;
वही वही साग सब्जी;
वही बदबूदार चटनी;
वही, वैसा ही खट्टा रसा;
दुख बहुत, सुख ज़रा सा !

संसार के बरगद पर
स्वप्नों के चमगादड़
इन स्वप्नों के शिल्पकार
कवि कम, ज्यादा तुकबन्दक !
परदे पर की उछल-कूद
शोक बासी, चुटकुला नपुंसक;
भ्रष्ट कथा, नष्ट बोध;
नौ धागे, एक रंग;
व्यभिचार के सारे ढंग !

बार बार वे ही भोग;
आसक्ति का वही रोग ।
वही मन्दिर, वही 'मूर्ति';
वे ही 'फूल', वही 'स्फूर्ति';

वे ही होठ, वे ही आँखें;
वे ही लटके, वे ही नखरे;
'वही पलंग', वही 'नारी';
— सितार नहीं, इकतारी !

करनी चाही आत्महत्या;
रोमियो की आत्महत्या;
दधीचि की आत्महत्या !
आत्महत्या भी वही !
आत्मा भी वही;
हत्या भी वही:
क्योंकि जीवन भी वही !
और मरण भी वही !

'''मराठी भाषा से अनुवाद : स्मिता दात्ये'''
</poem>
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