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गिलहरी / नेहा नरुका

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घास पर फुदकती गिलहरी तुम्हारे पास आई
तुम्हारी नर्म उंगलियों से चिप्स खाकर पेड़ के पास चली गई

मैं देखते हुए यह दृश्य सोच रही थी
जैसे मैं भी गिलहरी हूँ

तुम्हारे नर्म हाथों का भरोसा मुझे बहुत पास खींच लाया
मैं घास पर लेटी रही

मैं पेड़ के नीचे नहीं, मैं घर में छिप गई
जैसे मैं भी ढूँढ़ रही थी कोई सुरक्षित स्थान उस गिलहरी की तरह

उसे तुम्हारे हाथ से खाना भी था और तुम से डर के भागना भी था
मैं भी तो गिलहरी हूँ इन दिनों

मुझे तुम्हारे हाथ को सूंघना भी है और तुमसे डर के भागना भी है
मगर ये डर किससे है तुम्हारी उंगलियों से

या बहुत सारी उंगलियों से जो मेरी तरफ़ इशारा कर रही हैं

मैं गिलहरी की तरह अपने पेड़ पर सुरक्षित क्यों नहीं फुदक सकती
मेरा ध्यान उन उंगलियों की तरफ़ क्यों हैं

मैं तुम्हारी गोद में सिर रखकर घास पर क्यों नहीं लेट सकती
क्यों नहीं चूम सकती तुम्हारे होंठ बहुत देर तक

मैं डरकर भाग रही हूँ
या मैं ख़ुद से भाग रही हूँ

मुझे तुमसे प्रेम हो गया है
मैं ये कहते हुए क्यों छिप जाना चाहती हूँ अपने घर में

वे कौन से सख़्त हाथ हैं जो प्रेम शब्द सुनते ही कर देंगे मुझे टुकड़े-टुकड़े
मैं काँच तो नहीं हूँ न, मैं देह हूँ, पर मुझमें तो दिखोगे तुम ही तब भी

मेरे ख़ून में बह रहे हो तुम, तुम्हारे ख़ून में मैं
तो वे कौन हैं जो कह रहे हैं : तुम्हारा ख़ून ख़ून है, मेरा ख़ून पानी है

तुम्हारे हाथ में भोजन है, मेरे पेट में भूख हैं
तो वे भूख को छोटी और भोजन को बड़ा क्यों कहते हैं

मुझे क्यों फ़र्क़ पड़ता है किसी के कहने से
मैं तो गिलहरी हूँ न

मुझे तो फ़र्क़ पड़ना चाहिए तुम्हारी नरम उंगलियों की छुअन से
मैं तुम्हारी देह पर भी तो फुदक सकती हूँ !
</poem>
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