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|रचनाकार=विनोद शाही
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
घाटी में ईद के बकरे
कुर्बानी से पहले
नमाज़ पढ़ते हैं
धरती के स्वर्ग के वासी
दहशत भरे नर्क के बीच
सजदे में हैं
अल्लाह को पुकारते हैं
ज़ोर से धड़कते दिल बस
'हो हो' 'हो हो' करते हैं
पन्द्रह अगस्त भी दूर नहीं है
आज़ाद होने के लिए
घाटी के लोग
बकरों की तरह
सज सँवर कर आए हैं
बकरों की आँखों में विस्मय है
वैसा ही जैसा कभी
मरने से पहले किसी
पण्डित की आँखों में उतरा था
वैसे ही घाटी में उतरे हैं
अब की दफ़ा फ़ौज के लोग
जैसे इस ईद के मौसम में
असली सैलानी हों वे ही अमरनाथ के
यह ईद
मुसलमान के लिए मुहर्रम है
हिन्दू के लिए विस्थापन का अभिशाप
बाक़ी बचे थोड़े से लोग
जो सिर्फ़ आदमी हैं
उनकी इन्तज़ार में है
ईद
ईद की तरह
</poem>
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|रचनाकार=विनोद शाही
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|संग्रह=
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<poem>
घाटी में ईद के बकरे
कुर्बानी से पहले
नमाज़ पढ़ते हैं
धरती के स्वर्ग के वासी
दहशत भरे नर्क के बीच
सजदे में हैं
अल्लाह को पुकारते हैं
ज़ोर से धड़कते दिल बस
'हो हो' 'हो हो' करते हैं
पन्द्रह अगस्त भी दूर नहीं है
आज़ाद होने के लिए
घाटी के लोग
बकरों की तरह
सज सँवर कर आए हैं
बकरों की आँखों में विस्मय है
वैसा ही जैसा कभी
मरने से पहले किसी
पण्डित की आँखों में उतरा था
वैसे ही घाटी में उतरे हैं
अब की दफ़ा फ़ौज के लोग
जैसे इस ईद के मौसम में
असली सैलानी हों वे ही अमरनाथ के
यह ईद
मुसलमान के लिए मुहर्रम है
हिन्दू के लिए विस्थापन का अभिशाप
बाक़ी बचे थोड़े से लोग
जो सिर्फ़ आदमी हैं
उनकी इन्तज़ार में है
ईद
ईद की तरह
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