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|रचनाकार=मनोज जैन 'मधुर'
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|संग्रह=धूप भरकर मुट्ठियों में / मनोज जैन 'मधुर'
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<poem>
कुछ नहीं दें किन्तु हँसकर
प्यार के दो बोल बोलें ।

हम धनुष से झुक रहे हैं
तीर से तुम तन रहे हो ।
हैं मनुज हम तुम भला फिर
क्यों अपरिचत बन रहे हो ।
हर घड़ी शुभ है, चलो, मिल
नफ़रतों की गाँठ खोलें ।

स्वर्ग जैसी सम्पदा हमने
कभी चाही नही है ।
हम किसी अनुमोदना के व्यर्थ 
सहभागी नही हैं ।
शब्द को वश में करें हम
आखरों की शरण हो लें ।

फिर भला सुदृढ़ करें क्यों
बैर की बुनियाद को हम ।
पुनःस्थापित करें हम
मध्य में सम्वाद को हम ।
धूप भरकर मुट्ठियों में
द्वेष का सब तमस घोलें ।

हाथ पर सरसों जमाना,
तूल देना, छोड़ देना ।
हम न अब तक सीख पाए
व्यर्थ में मन तोड़ देना ।
साक्ष्य ईश्वर को बनाएँ
और अपने मन टटोलें ।
</poem>
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