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वीतरागी मन / मनोज जैन 'मधुर'

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वीतरागी मन
तुझे खूँटी मुबारक !
तू इसी पर टँग
यहीं पर रह ।

सामने अन्याय
गहरा हर तरफ़ से
वार करता है ।

बुद्ध तो तू है नहीं
जो बुद्ध -सा
व्यवहार करता है ।

वीतरागी मन
तुझे समता मुबारक
उठ रहीं संत्रास लपटें
तू इन्ही में दह ।

बोल तो रे !
क्यों नहीं तू धार
के विपरीत बह पाता ।

बोलना होता
ज़रूरी क्या वहाँ
तू बात कह पाता ।

वीतरागी मन तुझे
संशय मुबारक़ !
बाँह तू प्रतिरोध की
मत गह ।

सभ्यता धू-धू सुलगती
दिख रही है
फैलता है धूम्र काला ।

मुक्तिकामी
कामना में रमे रहना
तू निरन्तर फेर माला ।

वीतरागी मन तुझे
चुप्पी मुबारक
मौज में अपनी
निरन्तर बह ।
</poem>
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