भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
'{{KKGlobal}} {{KKAnooditRachna |रचनाकार=नाज़िम हिक़मत |संग्रह= }} Category:तु...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKAnooditRachna
|रचनाकार=नाज़िम हिक़मत
|संग्रह=
}}
[[Category:तुर्की भाषा]]
{{KKCatKavita}}
<poem>
न परलोक की आवाज़ें सुन पाने की छटपटाहट
न अपने नग़्मों में गूढ़ता पैदा करने की जद्दोजहद
न किसी जौहरी की-सी फ़िक्रमन्दी से बहर की तलाश
न ख़ूबसूरत लफ़्ज़,न पुरमग़्ज़ तक़रीर
शुक्र ख़ुदा का
कि आज रात मैं इस सबसे ऊपर हूँ
बहुत बहुत ऊपर हूँ ।

आज रात
मैं एक जनगायक हूँ, कोई लयकारी नहीं मेरी आवाज़ में;
गा रही है वो एक नग़्मा तुम्हारे लिए
जिसे तुम शायद सुन नहीं पाओगे ।

रात का वक़्त है और बर्फ़ गिर रही है,
और तुम माद्रिद की दहलीज़ र डटे हो
और तुम्हारे मुक़ाबिल एक फ़ौज तैनात है —
उम्मीद, हस्रत, आज़ादी और बच्चे
और शहर ...
यानी कि हमारी बेहद ख़ूबसूरत चीज़ों का
क़त्ल करती हुई

बर्फ़ गिर रही है
और शायद आज की रात
तुम्हारे गीले पैर ठण्ड से ठिठुर रहे होंगे !
बर्फ़ गिर रही है
और इस वक़्त जब मैं तुम्हारी फ़िक्र में डूबा हुआ हूँ
मुमकिन है इसी वक़्त एक गोली
तुम्हारे जिस्म में पेवस्त हो रही हो !
तब कोई मानी नहीं रह जाएँगे तुम्हारे लिए
बर्फ़ के, हवा के, दिन या रात के ...

बर्फ़ गिर रही है
’आगे मत बढ़ना !’ कहते हुए
माद्रिद की दहलीज़ पर तुम्हारे आ खड़े होने से पहले
कहीं न कहीं से तो तुम आए ही होंगे !
किसे पता,
शायद तुम अस्तूरिया की कोयला खदानों से आए हो
शायद इर में बँधी ख़ून में तर पट्टी के नीचे
तुम छिपाए हो उत्तरी इलाके में मिला अपना ज़ख़्म ।



25 दिसम्बर 1937

''' अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल'''
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,693
edits