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|रचनाकार=बाद्लेयर
|अनुवादक=सुरेश सलिल
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}}
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'''यह कविता उन कविताओं में से एक है, जिन्हें कवि की प्रथम और प्रतिनिधि काव्यकृति ‘अनिष्ट के पुष्प’ (‘ले फ़्लुर दुआ’) के प्रथम प्रकाशन काल में ही फ्राँस की न्यायपालिका ने प्रतिबन्धित कर दिया था। बाद में उनका प्रकाशन एक स्वतन्त्र पुस्तिका के रूप में बेल्जियम में हुआ था। सम्भवतः समूची 19वीं सदी में वे कविताएँ फ्राँस में प्रतिबन्धित रहीं।'''
तुम्हारी मेधा, तुम्हारी चेष्टाएँ, तुम्हारी छवि
इतनी सुन्दर जैसे कोई सुन्दर भूदृश्य,
हँसी वैसे ही थिरकती है तुम्हारे चेहरे पर
जैसे निर्मल आकाश में शीतल समीर
छुआ जिसे तुमने गुज़रते हुए पास से
चौन्धिया गया वह बदमिज़ाज आदमी
तुम्हारी द्युतिमान धज से —
फूटती हुई तुम्हारी बाँहों से, कन्धों से
आकर्षक रंग, जिनसे छितराती हो तुम
अपनी साज-सज्जा, रोंपते हैं
कवियों के मानस में — फूलों के
किसी गाथागान का बिम्ब
सनक भरी वे पोशाकें प्रतीक हैं
तुम्हारी विविधवर्णी आत्मा के,
उन्मत्ते, उत्तेजित हूँ मैं तुम्हें लेकर
नफ़रत करता हूँ मैं तुम्हें उतनी ही जितना प्रेम ।
कभी कभार किसी रंगारंग बाग़ में
घसीटता हुआ अपनी तन्द्रा को साथ
अनुभव किया है, मानो वह सब व्यंग्य हो
सूर्यालय मेरा वक्ष फाड़ता-उधेड़ता
और बहार ने, सब्ज़ पत्तियों ने
इतनी अवमानना की मेरे हृदय की
कि मैंने एक फूल को सज़ा दी
प्रकृति की इस निपट ठिठाई की।
लिहाज़ा, मैं चाहूँगा कि किसी रात
चाहत का क्षण जब ठकठकाये
किसी कायर की तरह बेआवाज़ रेंगता
पहुँचूँ मैं तुम्हारे हुस्न के ख़ज़ाने तक
दण्डित करने तुम्हारी रुचिर देह को वहाँ
मुक्कों से थुरने तुम्हारा मूक-विवश वक्ष,
और तुम्हारी चकित-विस्मित कटि में
करने एक ज़ख़्म बड़ा और खोखला
और, ओ अकुलाहट से भर देनेवाली मधुरिमे,
इन अधिक सुन्दर अधिक चकित-
कर देने वाले नए होंठों से
अपना विष तुममें उँडेलने ।
'''अंग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल'''
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'''यह कविता उन कविताओं में से एक है, जिन्हें कवि की प्रथम और प्रतिनिधि काव्यकृति ‘अनिष्ट के पुष्प’ (‘ले फ़्लुर दुआ’) के प्रथम प्रकाशन काल में ही फ्राँस की न्यायपालिका ने प्रतिबन्धित कर दिया था। बाद में उनका प्रकाशन एक स्वतन्त्र पुस्तिका के रूप में बेल्जियम में हुआ था। सम्भवतः समूची 19वीं सदी में वे कविताएँ फ्राँस में प्रतिबन्धित रहीं।'''
तुम्हारी मेधा, तुम्हारी चेष्टाएँ, तुम्हारी छवि
इतनी सुन्दर जैसे कोई सुन्दर भूदृश्य,
हँसी वैसे ही थिरकती है तुम्हारे चेहरे पर
जैसे निर्मल आकाश में शीतल समीर
छुआ जिसे तुमने गुज़रते हुए पास से
चौन्धिया गया वह बदमिज़ाज आदमी
तुम्हारी द्युतिमान धज से —
फूटती हुई तुम्हारी बाँहों से, कन्धों से
आकर्षक रंग, जिनसे छितराती हो तुम
अपनी साज-सज्जा, रोंपते हैं
कवियों के मानस में — फूलों के
किसी गाथागान का बिम्ब
सनक भरी वे पोशाकें प्रतीक हैं
तुम्हारी विविधवर्णी आत्मा के,
उन्मत्ते, उत्तेजित हूँ मैं तुम्हें लेकर
नफ़रत करता हूँ मैं तुम्हें उतनी ही जितना प्रेम ।
कभी कभार किसी रंगारंग बाग़ में
घसीटता हुआ अपनी तन्द्रा को साथ
अनुभव किया है, मानो वह सब व्यंग्य हो
सूर्यालय मेरा वक्ष फाड़ता-उधेड़ता
और बहार ने, सब्ज़ पत्तियों ने
इतनी अवमानना की मेरे हृदय की
कि मैंने एक फूल को सज़ा दी
प्रकृति की इस निपट ठिठाई की।
लिहाज़ा, मैं चाहूँगा कि किसी रात
चाहत का क्षण जब ठकठकाये
किसी कायर की तरह बेआवाज़ रेंगता
पहुँचूँ मैं तुम्हारे हुस्न के ख़ज़ाने तक
दण्डित करने तुम्हारी रुचिर देह को वहाँ
मुक्कों से थुरने तुम्हारा मूक-विवश वक्ष,
और तुम्हारी चकित-विस्मित कटि में
करने एक ज़ख़्म बड़ा और खोखला
और, ओ अकुलाहट से भर देनेवाली मधुरिमे,
इन अधिक सुन्दर अधिक चकित-
कर देने वाले नए होंठों से
अपना विष तुममें उँडेलने ।
'''अंग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल'''
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