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लिबास / शेखर सिंह मंगलम

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<poem>
बे-रंग समझते रहे लोग मगर
हम खुदरंग थे
चमचमाते लिबास वाले ही
हरेक बार तंग थे

जिन्हें मैंने किया था
अपने दुश्मनों में शुमार
दोस्तों के घात के बाद
वही मेरे बुरे वक्त में संग थे

अहा! ज़िन्दगी यही है जो
मैं देख रहा हूँ
मुझे उन्होंने कहा कि
तुम्हारे लिबास गंदे हैं जो
खुद ही अर्धनग्न थे

फिर भी मैंने अपनी आँखों को
बंद कर लिया
जानते हो क्यों? क्योंकि
कभी वो मेरे चहेते अंग थे

अब ये मत पूछना कि
अब हम संग हैं या तब तुम संग थे
बीत गई है बात
ना तुम संग थे और ना हम संग हैं...
</poem>
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