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|रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल
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|संग्रह=बर्लिन की दीवार / हरबिन्दर सिंह गिल
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<poem>
शायद आप सोच रह होंगे
बर्लिन-दीवार की इस कविता में
दुहराया जायगा इतिहास
कब हुआ था उदय बर्लिन का
या कैसे हुए दो टुकड़े
और कौन थे जिम्मेदार
इन सब करवटों के लिये।

या कौन-कौन जाति के लोग
इस बर्लिन की दीवार पर
करना चाहते थे दावा
या किस बोली का बर्चस्व है वहाँ
या क्या हैं संस्कार उनके

मगर ऐसा कुछ नहीं है
यह कहानी है, एक निर्जीव वस्तु की
जिसका नाम है पत्थर
और बर्लिन की दीवार में
लगे इन पत्थरों ने अपना ही
स्थान बना लिया है, मानवीय इतिहास में।

इसलिये, मैं जरूरी समझता हूँ
कि इससे पहले बर्लिन दीवार को
अपने विचारों रूपी ईंटों से चुनना शुरू करूं
और उसको कविता की लय से
सुंदरता की औढ़नी पहनाऊं
और उसके इस रूप को चाँद सा निखार सकूँ,
में आपको पत्थर की महत्ता का बोध करा दूँ,
और समझा सकूँ
ये पत्थर निर्जीव नहीं हैं
अपितु हैं उनमें
मानवता के आने वाले कल की साँसे।
</poem>
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