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|संग्रह=उडीक पुरांण / चंद्रप्रकाश देवल
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<poem>
ओळूं रै देस सूं देसाटौ लियोड़ौ
अठै आज म्हैं कांईं भाळूं हूं ?

घड़ी-घड़ी थोगीजता थकां बधणा नै हालणौ नीं कथीजै जिणसूं कांई व्है। लाख साम्हलौ बायरौ बाजौ अठै सूं टुरियां बिना कोनी रहीजै। देसाटै रौ म्यानौ है अेक भांय बिच्चै लेवणी। हुई जिकी जीव जाणली, अबै किणनै कैवणी। कैवण-सुणण सूं कांईं सांधौ लागै। उल्टी अेक कबंध पीड़ जागै। जिणनै ऊंचायां बैवणौ है। अठै तो किणी हाल, कोनी रैवणौ है बस, बोलौ बोलौ -

थां लग पाछा पूगता मारग माथला
खिंडता खुद खोज रुखाळूं हूं।
</poem>
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