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पिता की खाँसी / शिरोमणि महतो

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पिता की खाँसी
जैसे उठता — कोई ज्वार
मथता हुआ सागर को
इस छोर से उस छोर
दर्द से टूटते पोर-पोर ।

जब खाँसी का दौरा पड़ता
थरथराने लगता — पिता का धड़
डोलने लगता — माँ का कलेजा
मानो खाँसी चोट करती
घर की बुनियाद पर
हथौड़े की तरह
और हिल उठता — समूचा घर !

अब सत्तर की उमर पर
दवाओं का असर
कम पड़ रहा है
पिता की खाँसी पर

डाॅक्टर कहा करते हैं —
’यह खाँसी का दौरा
दमा कहलाता है
जो आदमी का
दम तोड़कर ही दम लेता है !
लेकिन
अगर आदमी में दम हो
तो पछाड़ सकता है
दमे को भी’

दमा और दम की
लड़ाई अभी जारी है !
</poem>
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