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{{KKRachna
|रचनाकार=ओबायद आकाश
|अनुवादक= शीतेन्द्र नाथ चौधुरी
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
धान खेत, कछारी माटी
आवृत हैं शाम की हवा में
कैसे बताऊँ तुम्हें कि अन्धियारे में
धोकर रखता कछारी माटी की गन्ध
पेड़ पर चढ़ न पाने के व्यर्थताबोध में
खून सने घाव खाए पंजर की तरह
धोने जाऊँ कीचमाटी तो
दर्द से छटपटाती है लहूलुहान हृदय पटल की त्वचा
देहभर में लगी कीचड़- माटी निजी तालाब के पानी में आज्ञाकारी छात्र है
तब फिर पवित्र शरीर का भार बिखर जाता है
कोमल धान और हलकी धूप के कम्पित इलाके में
कितना कुछ तो स्मरण है तुम्हें, अब भी
लिपटा हुआ हूँ कछारी माटी में, रह जाओ चिरस्थायी अधुनावाद में ।
</poem>
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|रचनाकार=ओबायद आकाश
|अनुवादक= शीतेन्द्र नाथ चौधुरी
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धान खेत, कछारी माटी
आवृत हैं शाम की हवा में
कैसे बताऊँ तुम्हें कि अन्धियारे में
धोकर रखता कछारी माटी की गन्ध
पेड़ पर चढ़ न पाने के व्यर्थताबोध में
खून सने घाव खाए पंजर की तरह
धोने जाऊँ कीचमाटी तो
दर्द से छटपटाती है लहूलुहान हृदय पटल की त्वचा
देहभर में लगी कीचड़- माटी निजी तालाब के पानी में आज्ञाकारी छात्र है
तब फिर पवित्र शरीर का भार बिखर जाता है
कोमल धान और हलकी धूप के कम्पित इलाके में
कितना कुछ तो स्मरण है तुम्हें, अब भी
लिपटा हुआ हूँ कछारी माटी में, रह जाओ चिरस्थायी अधुनावाद में ।
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